भारतीय समाज और पूँजीवाद-सुमन वी. आनन्द

जिस समाज में पूँजी व्यक्ति की पहचान बन जाती है वह पूँजी-वादी समाज होता है। व्यक्ति का सम्मान, पहचान, अस्तित्व, ज्ञान, मूल्य, रिश्ते इत्यादि उसकी अर्जित पूँजी से निर्धारित होने लगते हैं। विल गेट्स, जुकरबर्ग, अडानी, टाटा, बिड़ला, अम्बानी जब लोगों के आदर्श बनने लगते हैं तब यह कहा जाता है कि अमुक समाज पूँजीवाद को आत्मसात कर लिया है। वारेन बफेट, रतन टाटा, विल गेट्स, धीरूभाई अम्बानी के विचार महत्वपूर्ण होने लगतें है और समाज उन्हें प्रगति के मानक स्वरूप अंगीकार करने लगता है। धीरूभाई, टाटा, बिलड़ा, गेट्स, जुकरबर्ग की तस्वीरें लोगों के घरों और युवाओ की डी.पी. में प्रेरणास्वरूप लगायी जाने लगती है तब यह समझना चाहिये कि समाज पूँजीवाद को मानसिक रूप से अंगीकार कर चुका है।


पूँजीवादी समाज में पूँजी पहचान की पर्याय बन जाती है। रगों और विचारों में पूँजी और मात्र पूँजी ही दौड़ने लगती है। लोग स्वंय में केन्द्रित होने लगते हैं, और स्वयं के हित या स्वार्थ में समाज, प्रकृति एवं मानवता का दोहन करने लगते हैँ। कमाने वाले को सम्मान और पहचान मिलने लगती है और कमाने में विफल रहने वाले लोगों को हेय दृष्टि से देखा जाने लगता है, और तिरष्कृत किया जाने लगता है। बौद्धिक योग्यता गौड़ होने लगती है और उसके उपर पूँजी का सम्मान होने लगता है, पहचान मिलने लगती है। मदद, सहयोग, दया, संवेदना, सहानुभूति को मूर्खता परिभाषित की जाने लगती है। पूँजी सफलता का मानक और बौद्धिकता पागलपन का पर्याय बन जाती है। व्यक्ति समय का निवेश पूँजी के लिये करने लगता है और हर व्यक्ति पूँजी अर्जित करने के लिये ही कार्य करने लगता है।


इसके विपरीत समाजवादी समाज में लोक सेवा पहचान की पर्याय होती है। विचारों में सेवा भाव का प्रवाह होता है। लोग समग्र समाज के विकास एवं उत्थान के लिये काम करते हैं। स्वकेन्द्रित होने की बजाय लोककेन्द्रित विचार प्रभावी होता है। लोकहित में मानवता, समाज और प्रकृति की रक्षा एवं विकास करने की भावना प्रबल रहती है। रिश्तों की अहमियत सर्वोच्च होती है, न कमाने वाले स्वजन पागल नहीं समझे जाते बल्कि पदानुसार सम्मान प्राप्त करते हैं। उन्हें मात्र न कमाने की वजह से तिरष्कृत या अपमानित नहीं किया जाता है बल्कि रिश्ते के अनुसार आदर सम्मान होता है। बौद्धिक योग्यता को समाज में सर्वोच्च स्थान दिया जाता है और पूँजी को या कमाने वालों को भी सम्मान मिलता है परन्तु रिश्तों के उपर उन्हें कभी स्थान नहीं दिया जाता। मदद, सहयोग, दया, संवेदना, सहानुभूति को व्यक्तित्व की सर्वोच्चता माना जाता है। लोग समय और पूँजी दोनों का निवेश पहचान के लिये करते है, लोक सेवा के लिये करते है।


भारतीय दर्शन और धर्मशास्त्र भी समग्र मानवता के विकास की ही वकालत करते है। इनमे श्रेणीगत श्रेष्ठता का समावेश जरूर है पर बौद्धिकता और जनसेवा ही मूल अवधारणा है। मानव को और मानव समाज को ही प्राथमिकता है। भारतीय महापुरूष गाँधी, अम्बेडकर, लोहिया, टैगोर, नेहरू इत्यादि भी समग्र भारतीय समाज के उत्थान और उनके समकेतिक विकास को ही अवधारणा का प्रतिपादन करते हैं।


भारत मे गुजराती समाज भारतीय पूँजीवादी समाज का आइना है। गुजरात में यह देखा जाता ह  कि वहाँ की सड़कों पर बुजुर्ग एवं महिलाएं भी भारी बोझ उठाने के काम करते हुए दिखाई देती हैं। बोरों से लदे हाथ-रिक्शा को लड़कियाँ भी खिचते हुए ले जाती है। बुजुर्ग लोग भी बोझ ढ़ोने का काम करते हुए बहुतायत में दिखाई देते हैं। महिलाएं अगल-बगल बिना परिवार रहनें को दोनों टाइम खाना बनाकर टिफिन में पहुँचाया करती है। हर घरों में महिलायें बटन टाँकतें, सलमा-सितारा लगाते, रंग-रोगन करते, लेहसुन छिलते, भजिया, चिप्स बनाते दिखायी देती हैं। यहाँ तक कि पेट्रोल पंपों, दुकानों, फैक्ट्रियों में काम करती, पार्टियों में कुक या वेटर का काम करती बहुतायत में दिखती है। ये महिलायें निर्धन या मजदूर वर्ग के घरों की नहीं होती बल्कि गुजराती मध्यम वर्ग के घरों की होती है, जिनके अपने आलीशान मकान, मोटर कारें, दुकानें आदि सभी हैं, परन्तु ये फिर भी काम करती हुई दिखाई देती है। दरअसल इसका कारण गुजराती समाज की पूँजीवादी सोच है। गुजराती समाज की यह मान्यता है कि हर व्यक्ति को अपने खाने, पहनने भर का धन स्वंय कमाना है यदि कोई व्यक्ति स्त्री या पुरूष ऐसा नहीं करता है तो उसे पागल कहा जाता है और समाज उसे तिरष्कृत कर देता है। यानि गुजरात की सड़कों पर पसीने से लथपथ यदि बुजुर्ग और महिलायें भारी बोझ ढ़ोते दिखाई देते हैं तो यह गुजराती समाज की पूँजीवादी सोच का असर है कि हर व्यक्ति को हर दिन अपने खाने भर का स्वंय कमाना है वरना समाज और उनके परिवार ही उन्हें तिरष्कृत कर देगा।


गुजराती समाज की एक और विशेष बात है कि वहाँ पर लड़की पक्ष लड़के पक्ष से दहेज लेता है। वहाँ यह मान्यता है कि हमारे घर की एक मजदूर अगर आपके घर जायेगी तो वह लगभग 40 वर्षों तक काम करेगी, प्रतिदिन के हिसाब से उसे इतना पैसा मिलेगा, जिसमें इतना उसके स्वंय पर खर्चा होगा और जो शेष रकम बचेगी वह वधू पक्ष का होता है, जिसके आधार पर दहेज निर्धारित होता है। अर्थात वरपक्ष वधूपक्ष को उस शेष रकम को दहेज के रूप में वधूपक्ष को देगा, तब शादी तय होगी। कुछ ऐसी ही सोच शिक्षा को लेकर भी है कि इतनी पढ़ाई में इतना खर्चा आयेगा और इतना कमायेगा इसी आधार पर लोग बच्चों की शिक्षा पर भी व्यय करते हैं। उधार पर पैसे न देकर लोग ब्याज पर पैसे का लेनदेन करते हैं, वहाँ भी यह मान्यता है कि इतनी पूँजी से इतना कमाई होगी तो उस कमाई का इतना हिस्सा पूँजी वाले का हुआ। इसी आधार पर अधिकाँश दुकानें, व्यवसाय भी पार्टनरशिप पर चलते हैं। यहाँ तक कि जहाँ देश में लड़की भगाने पर आत्मसम्मान का मामला बन जाता है और हत्याएं भी हो जाती हैं, गुजरात में ऐसे मामले भी पैसे की लेन-देन पर निपट जाते है और समझौता हो जाता है। गाड़ियों के आपस में टकरा जाने, किसी सामान, फसल के क्षतिग्रस्त होने, चोट लग जानें इत्यादि मामले भी पैसे की लेन-देन पर निपटा दिये जाते हैं। अर्थात जीवन के हर पहलू में पूँजी का गहरे तक समावेश है और पूँजी के आधार पर ही सामाजिक गतिविधियां संचालित होती है। यहाँ तक कि जहाँ शेष भारत में महिलाओं और बुजुर्गों का घर में जवान लोग के रहते काम करना अपमान या निकृष्टता मानी जाती है वहीं गुजराती समाज इसे उचित और सम्मानित कार्य मानता है।


शेष भारतीय समाज अभी भी मूलतः  समाजवादी सोच से ग्रसित है। इसमें अभी भी जवान सदस्यों के रहते बुजुर्गों और महिलाओं को काम करने घर से बाहर भेजना अपमान का विषय माना जाता है। रिश्तों और मनुष्यों को पूँजी के तराजू की बजाय रिश्तों को बौद्धिकता, समाजसेवा, व्यवहार, सहयोग इत्यादि के तराजू से तौला जाता है। कोई भी नौवजवान अपने माँ, बाप या बहनों को पैसा कमाने के लिये बाहर नहीं भेजना चाहता। एक की कमाई से पूरा परिवार चलता है। बुजुर्गों और महिलाओं को जवानों की कमाई खाना उनका हक समझा जाता है न कि उनको न कमाने पर पागल समझा जाता हैं। लड़कियों का पारिवारिक संपत्ति में हिस्सा माना जाता है और उस हिस्से को ही लड़कियों की शादी के समय वर-पक्ष को दहेज स्वरूप दे दिया जाता है। यहाँ लड़कियों से बदसलूकी आत्मसम्मान से जुड़ा मामला माना जाता है और किसी भी शर्त पर इसका निपटारा पूँजी द्वारा असम्भव होता है। बुजुर्ग माँ-बाप को काम करने जाना युवाओं के डूब मरने की बात होती है। महिलाओं और बुजुर्गों से भारी काम नहीं कराया जाता है, यहाँ तक कि ऐसा देखने पर कोई भी राह चलता अनजान व्यक्ति भी मदद को आगे बढ़ जाता है। सार्वजनिक जगहों के कामों पर लोग घर की महिलायें भेजना पंसद नहीं करते बल्कि इसे अपमान का विषय समझते हैं। माँ को मात्र पैसा कमाने के लिये किसी अन्य व्यक्ति का बर्तन माँजना, खाना बनाना या उसके घर जाकर पहुँचाना अपमान का विषय होता है। अर्थात शेष भारत की सोच और गुजराती समाज की सोच में जमीन और आसमान का फर्क है और यह सोच पूँजीवादी सोच और समाजवादी सोच का प्रतीक भी है। शेष भारतीय समाज में कमानेवाले की कमाई में माँ, बाप, भाई, भतीजे से लेकर रिश्तेदारो और दोस्त मित्रों का भी हक होता है। दोस्तों मित्रों को यह जानते हुये भी लौटने की उम्मीद नहीं के बराबर है परन्तु उधार और सहयोग किये जाते हैं जबकि गुजराती समाज बिना ब्याज के अपने भाई को भी धन नहीं देता। अर्थात शेष भारतीय समाज में रिश्तों की अहमियत सर्वोपरि है।


वैश्विक स्तर पर पूँजीवाद का वर्तमान स्वरूप बिल्कुल अलग है। 1930 की वैश्विक मंदी के बाद विकसित देशों के पूँजीवादी विचारधारा में आमूल परिवर्तन हुआ। पूँजीवादियों ने यह महसूस किया कि बिना अधिसंख्य आबादी को उनकी मूलभूत जरूरतों को पूरा किये पूँजीवाद का सफाया हो जायेगा। गरीब, भूखे, नंगे लोगो की भीड़ में अपनी पूँजी और अपने आप को सुरक्षित रखने के लिये पूँजी का कुछ हिस्सा गरीब आबादी की मूलभूत आवश्यकताओं को पूर्ण करने हेतु निकालना ही पड़ेगा अन्यथा न तो पूँजी सुरक्षित रह सकेगी और न ही पूँजीवादी। भूखी आबादी कभी भी पूँजीवादियों के किलो को ध्वस्त कर देगी। इस प्रकार पश्चिमी पूँजीवादी शक्तियों में आम जनमानस में विश्वास बनाये रखने हेतु अपनी आय के कुछ हिस्से को गरीबी उद्धार कार्यक्रमों के संचालन हेतु देना शुरू किया। पूँजीवाद की समर्थक सरकारों ने भी कुछ विशेष कानूनों और प्रावधानों को लागू कर आम जनमानस के जीवन में विश्वास और आशा बनाये रखने का सार्थक प्रयास किया और यह सुनिश्चित किया कि हर स्तर के व्यक्ति का पूँजीवाद और पूँजीवादी विचारधारा पर विश्वास बना रहे।


पूँजीवादी विचारधारा को प्रायोगिक बनाने और पुख्ता करने के उद्देश्य से ही अमेरिका में 1930 की वैश्विक मंदी के बाद सोसल सेक्योरिटी बिल पास हुआ, जिसके द्वारा सरकार गरीबों की विभिन्न योजनाये संचालित कर उनमें विश्वास बनाये रखती है। विभिन्न जीवन बीमा योजनाओं के माध्यम से आम लोगों को घर, वाहन, इलाज, शिक्षा इत्यादि का प्रबन्ध किया जाता है। आप प्राइवेट में इलाज इस वजह से नहीं करा सकते कि उसका खर्च इतना ज्यादा है कि आप उसको वहन नहीं कर सकते, परन्तु जीवन बीमा योजना के अन्तर्गत आपको अपने इलाज की व्यवस्था है। आप अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूल में मंहगी फीस की वजह से नहीं पढ़ा सकते, परन्तु आप अपने मुहल्ले के स्कूल में मुफ्त में पढ़ा सकते है, सरकार ने उसकी व्यवस्था दी है। यदि आप 18 साल की उम्र से अधिक और बेरोजगार है तो आपको बेरोजगारी भत्ता मिलेगा वो भी उतना कि आप का सारा दैनिक कार्य पूर्ण हो सके। आप अपने बच्चों की उच्च शिक्षा का खर्च वहन नही कर सकते, परन्तु इसके लिये सरकार आपको लोन उपलब्ध कराती है जिससे आप उच्च शिक्षा दिलवा सकते हैं। हर व्यक्ति की गारन्टेड चिकित्सा और शिक्षा की योजनायें उपलब्ध है आप इनसे वंचित नहीं रह सकते। इसके अतिरिक्त फूड सेक्योरिटी बिल, होम योजनायें, वाहन योजनायें इत्यादि भी संचालित होती है। बच्चे राष्ट्रीय सम्पत्ति माने जाते है और मुफ्त शिक्षा और चिकित्सा उनको अनिवार्य रूप से सरकारों द्वारा उपलब्ध करायी जाती है। इसके अतिरिक्त ला आफ डाइवर्सिटी भी लागू है जिसके द्वारा प्रत्येक सरकारी या निजी उपक्रम को नस्लीय आबादी के अनुपात में नौकरी देना अनिवार्य है। यहाँ तक कि ठेके, लाइसेंस, एजेन्सी इत्यादि में भी नस्लीय आबादी के अनुपात के अनुसार ही आवंटन करना अनिवार्य है।


वैसे तो भारत में पूँजीवादी व्यवस्था कि शुरुआत नब्बे के दशक से ही कर दी गयी है परन्तु वास्तविकता यह है कि न तो यह देश नीतिगत स्तर पर पूँजीवादी देशों जैसे सोसल सेक्योरिटी जैसी नीतियों को लागू कर पाया है और न ही भारतीय समाज ही इन व्यवस्था को आत्मसात करने की मानसिक अवस्था में पहुँच पाया है। पूँजीवादी नीतियों को लागू करने की बात तो बहुत दूर है अभी तक हमारी सरकारें ऐसी नीतियाँ ही नहीं बना पायी है। जो कुछ थोड़ी बहुत नीतियाँ बनी भी है वो भी भ्रष्टाचार और श्रेणीगत लूट की भेंट चढ़ गयी है। जहाँ एकतरफ हम अमेरिका और पश्चिमी देशों जैसे जीवन बीमा, खाद्य सुरक्षा, राइट टू एजुकेट, हेल्थ सेक्योरटी बिल, बेरोजगारी भत्ता, श्रम कानून, मिनिमम वर्क गारन्टी योजनाये, राइट टू वर्क, यूनिवर्सल डायवर्सिटी बिल लाने व अमल करने में नाकाम रहे हैं वही 95 प्रतिशत भारतीय समाज भी अपने घर की महिलाओं और बुजुर्गों को यह कहने की मानसिक अवस्था में नहीं है कि अगर तुम अपने खाने भर का कमा नहीं सकते तो तुम्हे घर में खाने-रहने का अधिकार नहीं है। भारतीय समाज अपनी लड़कियों को नौकरी, व्यवसाय करने हेतु अकेले घर से कई-कई दिनों के लिये बाहर भेजने की मानसिक अवस्था में भी नहीं है।


सारांश रूप से अभी हमारे देश में पूर्णरूप से पूँजीवाद लागू करने की न तो नीतिगत पृष्ठभूमि तैयार है और न ही समाज का मानसिक परिवर्तन ही इसे आत्मसात करने योग्य हो पाया है। ले देकर हमारे पास पूँजीवाद लागू करने हेतु गुजरात माडल ही उपलब्ध है। परन्तु गुजरात के आम आदमी की सोच और शेष भारत की सोच में भी जमीन-आसमान का अन्तर है। गुजराती समाज बिना पश्चिमी देशों जैसे सोसल सेक्योरिटी बिल और ला आफ डायवर्सिटी के भी पूँजीवाद को स्वीकार करता है। वह पारिवारिक विघटन को स्वीकार कर चुका है, वह रिश्तों का आदर भूल चुका है। वह अपने बूढ़े माँ बाप को न कमाने की दशा में पागल कहने की मानसिक अवस्था में है। वह अपनी बेटियों को नौकरी व्यवसाय हेतु महीने-महीने भर दूसरे शहरों और राज्यों में अकेले भेजने की मानसिक अवस्था में है। परन्तु शेष भारतीय समाज अभी इसे पचाने की क्षमता विकसित नहीं कर पाया है। ऐसे परिवेश में पूँजीवादी व्यवस्था का पूर्णरूप से लागू होना देश को नया भारत बनाने की बजाय हताश और बीमार भारत बना सकता है। अतः नीति निर्धारकों को पूँजीवादी देशों की नीतियों और भारतीय समाज की मानसिकता का गहन अध्ययन करने के उपरांत ही पूँजीवादी व्यवस्था को पूर्णता से लागू करने का विचार किया जाना चाहिये। जल्दबाजी और बिना पूर्ण अध्ययन से सशक्त भारत का सपना असक्त और बीमार भारत में तब्दील हो सकता है।