क्या बुद्धिजीवी वर्ग आज अपनी कर्तव्यों का निर्वहन कर रहा है : कामरेड प्रेमचंद यादव


हमारे सामने सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या बौद्धिक वर्ग, जो एससी, एसटी और ओ.बी.सी वर्ग से उत्पन्न हुआ है, हमारे पूर्वजों की इच्छाओं का पालन कर रहा है? इस वर्ग के व्यवहार पैटर्न के गहन विश्लेषण से पता चलता है कि, यह ऐसी किसी भी गतिविधि में सक्रिय रूप से शामिल नहीं है। सबसे अधिक शर्मनाक और दुखद स्थिति यह है कि, इस वर्ग के लोग उस समाज की भी अनदेखी करते हैं जहां से वे आते हैं, और अपने ही लोगों से दूरी बनाए रखने की कोशिश करते हैं। अपने जीवन के चरम अंत में, डॉ अम्बेडकर ने खुद इस कड़वे सच का अनुभव किया जब 18 मार्च 1956 को यू.पी. में आगरा में रामलीला मैदान में बहुत भारी हृदय के साथ उन्होंने कहा : "शिक्षित वर्ग ने मुझे धोखा दिया है। मैं सोच रहा था कि शिक्षा पाने के बाद यह वर्ग अपने समाज की सेवा करेगा, लेकिन मैं अपने चारों ओर क्लर्कों की भीड़ देखता हूं, जो केवल अपना पेट भरने में व्यस्त हैं। "डॉ अम्बेडकर के ये भावनात्मक उद्गार दर्शाते हैं कि बौद्धिक वर्ग शारीरिक और भावनात्मक रूप से अपने लोगों से दूर चला गया। यही कारण है कि हम गांवों में बहुजनों के प्रति अत्याचार, अन्याय, शोषण और भेदभाव के मामलों की बढ़ती प्रवृत्ति को देखते हैं। बौद्धिक वर्ग उन गतिविधियों में शामिल नहीं है, जिसके लिए महात्मा फुले और डॉ अम्बेडकर ने इस वर्ग का निर्माण किया।


बौद्धिक लोग, जिनसे जनता को नेतृत्व करने की उम्मीद थी, सरकार के वफादार नौकर बनने में लग गए हैं। इस से बहुजनों के सामाजिक आंदोलन का नेतृत्व समाज के अपरिपक्व, अशिक्षित और परिश्रम करने वाले लोगों के हाथों में छूट गया है। नतीजा यह है कि महात्मा फुले और बाबासाहेब अंबेडकर द्वारा प्रारम्भ किया गया सामाजिक आंदोलन उस गति से आगे नहीं बढ़ा है जिसकी कल्पना की गयी थी। लेकिन पैगाम के कार्यकर्ताओ के प्रयास से यह स्थिति बदल रही है।