न्याय पालिका द्वारा भेदभाव : डाॅ. चतुरानन ओझा 


भारत के संविधान के भाग 3 में मौलिक अधिकारों का प्राविधान किया गया है। अनुच्छेद-14 विधि के समक्ष समानता, अनुच्छेद-19(1)a अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता। परंतु दो मामला देखिए- ABP न्यूज़ के रिपोर्टर कुलकर्णी को फेक न्यूज़ फैलाने के लिए अरेस्ट किया गया था। उन्हें जब मजिस्ट्रेट के सामने लाया गया तो मजिस्ट्रेट ने पहले से ही जेल में अत्यधिक भीड़ व कोरोना से बचाव को देखते हुए जमानत दे दिया। वहीं लगभग 70 वर्ष के गौतम नवलखा व आनंद तेलतुंबड़े को कोरोना संक्रमण के प्रति संवेदनशील होने के बावजूद सर्वोच्च न्यायालय तक ने लॉक डाउन तक जेल जाने से मोहलत नहीं दिया। और तो और आनंद तेलतुंबडे को डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के नातिन दामाद होने के बावजूद 14 अप्रैल को ही सरेंडर का आदेश दिया था।


यहां यह विचारणीय है कि अधिक उम्र, दमे की शिकायत सहित अन्य कई बीमारियों के बावजूद नवलखा और तेलतुबंडे को तुरन्त भीड़ भरे जेल में भेजने की इतनी हड़बड़ी क्यों है? यदि न्यायिक प्रक्रियाओं के कारण उन दोनों को डेढ़ वर्षों से राहत मिली हुई थी तो क्या कोरोना की आपातकालीन संकट के समय कुछ समय और गिरफ्तारी नहीं रोकी जा सकती थी? उस समय और जब सर्वोच्च न्यायालय की पहल के बाद जेलों से कैदियों को कोरोना संक्रमण से बचाव के कारण छोड़ा जा रहा है। 


यदि जेल में नवलखा और तेलतुबंड़े को कोरोना संक्रमण होता है तो क्या न्यायपालिका जिम्मेदार नहीं होगी? या मोदी सरकार के इशारे पर इन दोनों को जानबूझकर कोरोना संक्रमण की संभावना की तरफ नहीं धकेल दिया गया है? सवाल यह भी है कि यदि न्यायपालिका इस समय अन्य सामान्य कैदियों के मामले में कोरोना संकट के समय आपात स्थिति की तरह विचार कर रही है वहीं संवेदनशील आनंद तेलतुबंड़े, व नवलखा को जेल भेज रही है, यह निर्णय क्या न्यायपालिका का स्वतंत्र निर्णय है? और यदि है तो क्या हमारी विधि व्यवस्था ऐसे आपात मामलों में भी अलग-अलग लोगों से अलग उपचार की अनुमति देती है?
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