पश्चिम बंगाल : राहत सामग्री बांटने की आड़ में हिन्दुओं को कन्वर्ट करने में जुटीं ईसाई मिशनरियां     









 





























 

पश्चिम बंगाल में गरीबों पर दोहरी मार पड़ रही है। राज्य सरकार ने गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों के एपीएल कार्ड बना दिए हैं, जबकि उनका बीपीएल कार्ड बनना चाहिए था। अब उन्हें राहत सामग्री के लिए कीमत चुकानी पड़ रही है। यही नहीं, राहत सामग्री देते समय भी यह देख लिया जाता है कि रुपए लेने वाला तृणमूल कांग्रेस का समर्थक है। राज्य में गरीबी का फायदा उठाकर ईसाई मिशनरियां भी कन्वर्जन के काम में जुटी हुई हैं

 

कोरोना महामारी के इस दौर में केंद्र और राज्य सरकारों ने खजाने का मुंह खोल दिया है ताकि कोई भी गरीब भूखा न रहे। स्वयंसेवी संस्थाओं और गैर-सरकारी संगठनों की ओर से भी जरूरतमंद लोगों तक राहत सामग्री पहुंचाई जा रही है। लेकिन पश्चिम बंगाल में उलटा हो रहा है। यहां राहत सामग्री उन लोगों को बांटी जा रही है, जो तृणमूल कांग्रेस के समर्थक हैं या कार्यकर्ता। राज्य में गरीबी का फायदा उठाकर ईसाई मिशनरियां भी कन्वर्जन के काम में जुटी हुई हैं।

 

केंद्र सरकार ने कोरोना महामारी से निपटने के लिए कुछ मानक तय किए हैं। इसमें लॉकडाउन के अलावा सामाजिक दूरी का पालन करना भी शामिल है। सभी राज्य इसका सख्ती से पालन भी कर रहे हैं। लेकिन पश्चिम बंगाल में न तो संक्रमितों की जांच हो रही है, न सामाजिक दूरी का पालन हो रहा है और न ही जरूरतमंद लोगों को राहत सामग्री दी जा रही है। राज्य सरकार ने राहत सामग्री के वितरण की पूरी जिम्मेदारी स्थानीय पार्षद/सभासद को सौंप दी है। पार्षद और उस क्षेत्र का विधायक, यहीं दोनों तय करते हैं कि राहत सामग्री किसे देनी है। इस बात की पुष्टि नदिया जिले के गेसपुर कल्याणी के बिश्वजीत पाल करते हैं। वे बताते हैं कि राहत सामग्री उन्हीं लोगों को दी जा रही है, जो तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ता या समर्थक हैं। यही नहीं, इन लोगों ने नियमों को ताक पर रखकर रिक्शाचालक, मजदूर और घरेलू कामगारों का एपीएल कार्ड बना दिया जो बेहद गरीब हैं। ये हिन्दू शरणार्थी हैं जो 1971 में पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से आए थे। नियमानुसार इनका बीपीएल कार्ड बनाया जाना चाहिए था।

 

दरअसल, पश्चिम-बंगाल में राजनीतिक दलों की राजनीति राशनकार्ड पर ही चलती है। पहले माकपा यह राजनीति करती थी और अब तृणमूल उसी के नक्शेकदम पर चल रही है।

 

पश्चिम-बंगाल के इतिहास पर नजर डालें तो जून 1977 में आपातकाल के बाद जब देश में परिवर्तन की लहर चली तो राज्य में सत्ता परिवर्तन हुआ और माकपा के नेतृत्व में वाममोर्चे की सरकार बनी। माकपा ने राशनकार्ड की राजनीति शुरू की। गरीब हिन्दू शरणार्थियों की सहानुभूति हासिल करने के लिए माकपा ने न केवल उनका राशन कार्ड बनाया, बल्कि उन्हें पार्टी कार्यकर्ता भी बनाया। वर्तमान सत्तारूढ़ पार्टी तृणमूल कांग्रेस इस मामले में पूर्ववर्ती सरकार से दस कदम आगे है। 24 परगना के सुप्रियो सरकार ने बताते हैं कि तृणमूल कांग्रेस ने राशन कार्ड बनाने में अपने कार्यकर्ताओं और समर्थकों को प्राथमिकता दी। भले ही वे गरीब हों या आर्थिक रूप से संपन्न। इसी कड़ी में उन लोगों का एपीएल कार्ड बनाया गया जो वास्तव में गरीबी रेखा से नीचे हैं। यही स्थिति राहत सामग्री के वितरण की भी है। आलम यह है कि गरीबों पर दोहरी मार पड़ रही है। जिनके पास एपीएल कार्ड हैं उनसे राशन के एवज में पैसे लिए जा रहे हैं।

 

सेवा भावी संगठनों की राह में रोड़े बनती राज्य सरकार

 

ममता बनर्जी सरकार ने तानाशाही रवैया अपनाते हुए सेवा भारती, भारत सेवा आश्रम संघ, रामकृष्ण मिशन, समाज सेवा भारती जैसी संस्थाएं, जो गरीबों के बीच नि:शुल्क भोजन एवं खाद्य सामग्री वितरित कर रही हैं, उन्हें इसकी अनुमति नहीं दे रही है। यानी राहत या खाद्य सामग्री का वितरण कार्य स्थानीय पार्षदों की निगरानी में चल रहा है। बारासात के एक रिक्शा चालक ने राहत सामग्री के वितरण में भाई-भतीजावाद का आरोप लगाते हुए कहा कि मुस्लिम बहुल इलाकों में खाद्य सामग्री की कोई कमी नहीं है। उन लोगों को ऐसे ही खाद्य सामग्री दी जा रही है, जबकि एपीएल कार्डधारकों से राहत सामग्री देने से पहले पार्षद उनसे कड़ी पूछताछ कर रहे हैं। इसके बाद उन्हें 500 ग्राम दाल और एक किलो चावल दे रहे हैं। वहीं, जिनके पास राशन कार्ड नहीं है, खाद्य सामग्री देने से पहले उनका भी साक्षात्कार लिया जा रहा है।

 

दरअसल, यह पूछ-ताछ यह पता करने के लिए की जा रही है कि राहत सामग्री पाने वाला व्यक्ति किस पार्टी का समर्थक है। अगर लाभार्थी तृणमूल कांग्रेस का समर्थक नहीं होता है तो उस पर भाजपा समर्थक होने का ठप्पा लगाकर उसे भगा दिया जाता है। ऐसे लोग पैसे देकर बाजार मूल्य पर राहत सामग्री खरीद रहे हैं। एक अंग्रेजी अखबार के पत्रकार रोहित खन्ना कहते हैं कि पश्चिम-बंगाल में ‘राशनिंग सिस्टम’ सबसे बड़ा घपला है। कोरोना महामारी के समय गरीबों को मूल्य चुकाने पर भी खाद्य सामग्री नहीं मिल रही है। अगर कोई सेवा कार्य करने के लिए आता है तो तृणमूल के स्थानीय गुंडे उसके साथ दुर्व्यवहार करते हैं। उन्हें जन सेवा करने से रोकते हैं। स्थिति यह है कि राज्य के 18 भाजपा सांसदों तक को अपने क्षेत्र में सेवा कार्य करने की अनुमति नहीं है। उन्हें नजरबंद कर दिया गया है। स्थानीय पार्षद द्वारा खाद्य सामग्री का वितरण इसलिए किया जाता है ताकि संसाधन विहीन लोगों की सहानुभूति तृणमूल के प्रति हो या वे पार्टी के समर्थक बन जाएं।

 

ऐसा करने के पीछे तृणमूल की सारी कवायद इस साल होने वाले नगर निगम चुनाव और 2021 के विधानसभा चुनावों को लेकर है। इसलिए तृणमूल कांग्रेस द्वारा वितरित की जाने वाली राहत सामग्री वाले पैकेट पर ममता बनर्जी की फोटो लगाई गई है। ममता किसी भी तरह सत्ता में बनी रहना चाहती हैं, इसलिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत राहत-सामग्री का वितरण इस तरह करा रही हैं कि उनका पारंपरिक वोट बैंक बना रहे। साथ ही, सेवा की आड़ में संसाधनविहीन मजदूरों, गरीबों की सहानुभूति भी बटोरने का प्रयास कर रही हैं।

 

कन्वर्जन की फसल काटने में जुटी ईसाई मिशनरियां

 

राहत सामग्री बांटने की आड़ में ईसाई मिशनरी राज्य के कई इलाकों में कन्वर्जन के कारोबार में जुटी हुई हैं। खासतौर से पुरुलिया, झाड़ग्राम, बांकुरा और नदिया जिले में वे सक्रिय हैं। वैश्विक आपदा या महामारी इनके लिए मुंह मांगी मुराद की तरह है। नदिया का रानाघाट व शांतिपुर ऐसे इलाके हैं जहां बांग्लादेश से आए हुए गरीब हिन्दू शरणार्थियों की संख्या काफी है। उनके पास न तो राशन कार्ड है और न ही दूसरे कार्ड, जिसका फायदा उन्हें मिल सके। इसलिए मिशनरी सेवा के बहाने इन इलाकों में घर-घर जाकर लोगों को खाद्य सामग्री दे रहे हैं और उन्हें कन्वर्ट कर रहे हैं।

 

डॉ. अंबा शंकर बाजपेयी साभार- पाञ्चजन्य साप्ताहिक पत्रिका