सामाजिक क्रांति के संघर्षशील अग्रदूत बाबा साहेब






 




















 


भगवान बुद्ध, संत कबीर, महात्मा फुले जैसी महान आत्माओं के पदचिन्हों को ध्येय मार्ग मानकर सामाजिक क्रांति के उद्बोधक व पोषक डॉ. आंबेडकर का व्यक्तित्व, कृतित्व और विचार बहुआयामी है। 14 अप्रैल को उनकी जयंती है तब तक हम रोजाना बाबा साहेब बारे में जानकारी देने वाले लेखों को प्रस्तुत करेंगे




 

डॉ. बासाहेब आंबेडकर को उनकी समग्रता में देखने का कठिन कार्य अब तक पूरी तरीके से नहीं कर पाया हूं, शायद यह कार्य कभी पूरा होगा भी नहीं। केवल इसलिए नहीं कि डॉ. आंबेडकर के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलू इतने गहरे हैं कि उनकी थाह पाना मुश्किल है, बल्कि इसलिए भी कि व्यक्तित्व या घटनाक्रम को उसकी पूर्णता में देखकर निष्कर्ष निकालने का कार्य अब अधिकाधिक कठिन होता जा रहा है। इसके लिए जिस वस्तुपरकता तथा निस्पृहता की आवश्यकता है, वह अभाव के रूप में मिलती है। डॉ. भीमराव आंबेडकर विश्व के उन महारथियों में हैं, जो काल के कपाल पर अपनी अमिट छाप छोड़ जाते हैं, और जिनके जुझारू जीवन और अनवरत संघर्ष से प्रेरणा लेकर भावी पीढ़ी, सामाजिक समता तथा न्याय की मशाल जलाकर अंधकार की शक्तियों से निरन्तर लड़ती रहती हैं। वे सामाजिक क्रांति के संघर्षशील अग्रदूत थे। उनका मत था कि दलितों का संघर्ष राजनीतिक सत्ता में भागीदारी का संघर्ष है और एक बार यदि यह भागीकारी मिल गई तो सामाजिक न्याय के आधार पर समाज की रचना का कार्य सरल हो जाएगा।


 

बाबा साहेब ने किया भारतीय समाज को परिवर्तित करने का अतुलनीय कार्य

 

भगवान बुद्ध, संत कबीर, महात्मा फुले जैसी महान आत्माओं के पदचिन्हों को ध्येय मार्ग मानकर सामाजिक क्रांति के उद्बोधक व पोषक डॉ. आंबेडकर का व्यक्तित्व, कृतित्व और विचार बहुआयामी है। भारतीय राष्ट्रीय राजनीति एवं समाज जीवन के प्रत्येक पहलू पर उनकी पैनी दृष्टि रही है और उन्होंने इसे प्रभावित भी किया है। एक निष्ठ कर्मयोगी की भांति भारतरत्न बाबा साहेब ने मृत्यु पर्यन्त भारतीय समाज को परिवर्तित करने का अतुलनीय कार्य किया है। उनका कर्मयोग, संघर्ष एवं सुधारवाद आत्म सम्मान का प्रतीक है। उनके चिन्तन में दलित, शोषित, वंचित समाज से संबंधित प्रश्न सदैव ही प्रमुखता में रहे। इसीलिए उन्होंने संविधान के प्रमुख शिल्पकार और संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में सर्व-समावेशी समाज की स्थापना की आधारशिला की स्थापना की। डॉ. आंबेडकर का कर्मयोग किसी समुदाय विशेष के लिए न होकर समग्र समाज और सारी मानवता के लिए है। इस महामानव ने भारतीय हिन्दू समाज में व्याप्त कुरीतियों को मिटाने, परिवर्तित करने और दलितों, वंचितों के उत्थान, समानता एवं सम्मान के लिए जिस निष्ठा और समर्पण भाव से संघर्ष एवं प्रयास किया, वह अविश्वसनीय एवं अनुकरणीय है।

 

अपने समकालिकों में सबसे ज्यादा शिक्षित थे

 

बाबा साहेब अपने समकालिक लोगों में सर्वाधिक शिक्षित व्यक्ति थे। उन्होंने कठोर परिश्रम से उच्च शिक्षा प्राप्त की थी। परन्तु जीवन के प्रारम्भिक वर्षों से ही उन्होंने समाज में व्याप्त अमानवीय कुरीतियों, छूआछूत, विभेद, तिरस्कार और जातिगत आधार पर उपेक्षा और अपमान की स्थितियों को स्वयं भोगा था। परन्तु उन्होंने राजनीतिक, सामाजिक जीवन में एक भी ऐसा कार्य नहीं किया, जिसे राष्ट्र विरुद्ध या समाज विरुद्ध कहा जाए। दलित समाज के लिए कार्य करने, उनकी चिन्ता करने, उनके लिए संवैधानिक प्रावधान करने के लिए उन्होंने अनेकानेक स्थानों पर ब्रिटिश सरकार की समितियों में कार्य किया, सहयोग किया लेकिन उनका उद्देश्य बहुत स्पष्ट था। वे दलित, शोषित, वंचित समाज को सशक्त, आत्मनिर्भर एवं सम्मानित जीवन देने के कार्य में सन्नद्ध थे। इसीलिए अनेकानेक विद्वानों विशेषकर कांग्रेस और गांधी जी के समर्थकों ने यह स्थापित करने का प्रयास किया कि डॉ. आंबेडकर अंग्रेजों के चाटुकार थे, सत्ता लोलुप थे और कुछ लोगों ने तो उन्हें राष्ट्रद्रोही की संज्ञा से भी विभूषित कर दिया जिसमें अरुण शौरी 'वर्शिपिंग फाल्स गाड्स' का नाम प्रमुखता से लिया जाता है जिसमें समग्रता का अभाव प्रतीत होता है।

 

निस्संदेह डॉ. आंबेडकर ने तिलक, गांधी, भगत सिंह, सरदार पटेल, डॉ. राजेंद्र प्रसाद आदि अन्य स्वतंत्रता सेनानियों की भांति राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में भाग नहीं लिया परन्तु उनकी दृष्टि और कृत्तित्व में कोई प्रतिरोध नहीं है अपितु उनका यह कार्य ठीक उसी प्रकार से पूरक है जिस प्रकार से ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज, आर्य समाज आदि। तत्कालीन राष्ट्रीय राजनीति और राष्ट्रीय आन्दोलन और संभावित आजादी के परिप्रेक्ष्य में 22 सितंबर, 1944 मद्रास में अपने उद्बोधन में उन्होंने कहा,''मैं राष्ट्रवाद विरोधी नहीं हूं, मैं आजादी का विरोधी नहीं हूं। अगर मुझे आश्वस्त किया जा सके कि मुझे स्वतंत्रता, शिक्षा और कल्याण मिल सकता है, जिसका वचन दिया गया है तो मैं निश्चित रूप से आजादी के लिए, राष्ट्रवाद के लिए और स्वतंत्रता के लिए लडूंगा।''

30 नवंबर,1945 को अमदाबाद में बाबा साहेब का भाषण उल्लेखनीय है। उन्होंने कहा था,'' मैं केवल आजादी नहीं अपितु पूर्ण स्वतंत्रता चाहता हूं।'' वे सदैव दलित शोषित समाज के अधिकारों और सुरक्षा के संभावित प्रावधानों के लिए चिंतित रहे। एक स्थान पर तो उन्होंने कांग्रेस और गांधी दोनों को इंगित करते हुए कहा है कि ''मैं भी राष्ट्रीय आंदोलन में भागीदारी चाहता हूं, आजादी चाहता और आपसे ज्यादा प्रतिबद्धता से लड़ना चाहता हूं परन्तु भविष्य के लिए आश्वस्ति चाहता हूं।''

 

राष्ट्र के लिए प्रतिबद्धता

 

डॉ. आंबेडकर के राष्ट्रवाद को जेल जाना, अंग्रेजी साम्राज्यवाद का विरोध, सत्याग्रह में भागीदारी, गांधी और कांग्रेस के नेतृत्व को स्वीकारना एवं सहयोग के स्थापित या पोषित मानदंड से अलग समाज सुधार, छुआछ्त उन्मूलन, जाति उन्मूलन, शोषण, विषमता उन्मूलन के साथ-साथ समाज के उपेक्षित, शोषित और पिछड़े वर्ग के सशक्तीकरण के साथ राष्ट्र निर्माण की समग्रता में देखना चाहिए। तभी डॉ. आंबेडकर की राष्ट्र संकल्पना से न्याय हो सकता है। उनके अनुसार ''मानवता के इतिहास में राष्ट्रीयता एक बहुत बड़ी शक्ति रही है। यह एकत्व की भावना है। किसी वर्ग विशेष से संबंधित होना नहीं। यही राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय भावना का सार है।'' उन्होंने समाज के उस वर्ग को समानता तथा नागरिक अधिकार दिलाने का प्रयास किया, संघर्ष किया जो सदियों से मानवीय मूल्यों से वंचित थे। उनकी राष्ट्रीयता की भावना विदेशी प्रभुत्व और भारतीय समाज में व्याप्त आंतरिक उत्पीड़न दोनों के विरुद्ध है। इसीलिए डॉ. आंबेडकर ने कहा था,'' मैं अपने लोगों के लिए प्रतिबद्ध हूं। और मेरा दृढ़ निश्चय है कि राजनीतिक सुरक्षा से उनकी सभी कठिनाइयों को समाप्त किया जाए। मैं इस राष्ट्र के लिए भी प्रतिबद्ध हूं और मेरे मन में कोई संदेह नहीं कि आप भी हैं। हम सभी इस देश की आजादी चाहते हैं।'' बाबा साहेब की स्वतंत्रता और पूर्ण आजादी की समझ बहुत स्पष्ट है। उन्होंने देश की स्वतंत्रता और देश के लोगों की वैयक्तिक स्वतंत्रता के अंतर को स्पष्ट रूप से समझा और समझाया और कहा,''हमें सिर्फ स्वतंत्रता ही नहीं पूर्ण स्वराज चाहिए।'' उनका पूर्ण स्वराज, सर्वगामी और बहुआयामी है। उनका मानना था,''राष्ट्रवाद तभी औचित्य ग्रहण कर सकता है जब मानव के बीच जाति, नस्ल या रंग का अन्तर भुलाकर, सामाजिक भातृत्व को सर्वोच्च स्थान प्रदान किया जाए।''

 

दलित शोषित समाज का सशक्तीकरण एवं अछूतोद्वार के उद्देश्य को प्रमुखता प्रदान करने के कारण सामान्यत: उन्हें एक वर्ग विशेष के नेता या उन्नायक के रूप में देखा जाता है। यह उनके कृतित्व एवं बहुआयामी चिन्तन के साथ अन्याय है। यदि गहराई से विश्लेषण किया जाए तो दिखता है कि उनका भी मूूल उद्देश्य समाज और राष्ट्र निर्माण है। उनकी मूल प्रेरणा जाति न होकर सामाजिक समन्वय और राष्ट्रीय एकता ही है। राष्ट्र की एकता, सम्प्रभुता, अखंडता, दृढ़ता ही उनका अभीष्ट है, केवल माध्यम अलग है।

 

राष्ट्र के लिए आवश्यक तत्वों की चर्चा करते हुए डॉ. आंबेडकर का कथन है, ''राष्ट्र निर्माण के लिए प्रथम आवश्यकता है सम्पन्न विरासत की स्मृति का सामान्य स्वत्व और दूसरी है वास्तविक सहमति। एक साथ विकास करने की उत्कट अभिलाषा, अविभाजित उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त निधि को सुरक्षित रखने की इच्छा। राष्ट्र, व्यक्ति की भांति विगत दीर्घकाल के प्रयास त्याग और लगन का परिणाम है। एक साहसिक अतीत, महान पुरुष तथा राष्ट्र का वैभव ये सब मिलकर सामाजिक पूंजी संचित करते हैं, जिसके ऊपर राष्ट्रीय विचारधारा की नींव पड़ती है। राष्ट्रीय जनता के लिए आवश्यक शर्ते हैं- अतीत का सम्मिलित गौरव, वर्तमान की सम्मलित इच्छाशक्ति, मिलजुलकर किया हुआ महान कार्य और भविष्य में पुन: करने' का संकल्प। जिस भवन (राष्ट्र) को हमने निर्मित किया है, हमें प्रिय है। इसे हम अपने उत्तराधिकारियों के सुपुर्द करेंगे।'' उनकी यह सुन्दर भावना ही वास्तव में राष्ट्रवाद है। हिन्दू धर्म में व्याप्त कुरीतियों को वे समाप्त करना चाहते इसीलिए उनके विचारों में हिन्दू धर्म एवं व्याप्त ब्राह्मणवाद के विरुद्ध कटुता और आक्रामकता दिखती है, लेकिन इसका यह अभिप्राय कतई नहीं है कि उन्हें भारतीय संस्कृति और इसकी विरासत का अभिमान नहीं होता। उन्होंने अपने कष्ट का उल्लेख करते हुए 'बहिष्कृत भारत' पत्रिका में 'हिन्दुओं का धर्मशास्त्र' शीर्षक से संपादकीय लिखा, ''अति प्राचीन काल के वैभव संपन्न राष्ट्रों में हिंदू राष्ट्र भी एक है। मिस्र, रोम, ग्रीस आदि का अस्तित्व समाप्त हो गया परंतु हिन्दू राष्ट्र आज तक जीवित है, इसलिए बलवान है यह कहना भी अपने को धोखे में रखने की बात है। हिंदू राष्ट्र की पराजय तथा उसके पतन के कारणों में उसका भेदभाव मूलक धर्मशास्त्र भी है। यह हमें मानना पड़ेगा।''

 

राष्ट्र सर्वोपरि

 

डॉ. आंबेडकर भारतीय सामाजिक जीवन या हिंदू जीवन में व्याप्त कुरीतियों को जहां समाप्त करना चाहते थे, वहीं वे एक सुधारात्मक आंदोलन भी चलाना चाहते थे। यह तत्कालीन परिस्थितियों में एक दूरगामी और स्वाभाविक प्रक्रिया थी। राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व करने के साथ-साथ, गांधी जी स्वयं सामाजिक संरचना के कार्यों को कर रहे थे, जिसमें छुआछूत का विरोध और नशाबंदी जैसे कार्यों और विचारों का उल्लेख प्राय: किया जाता है। इन्हीं संरचनात्मक कार्यों से आगे बढ़कर आंबेडकर अपने समाज के लोगों को वैधानिक और राजनीतिक रूप से सशक्त करना चाहते थे। राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में उनके इस महान कार्य को किसी भी रूप में दोय्यम नहीं माना जा सकता। अनेकानेक राष्ट्रपुत्रों की भांति डॉ. आंबेडकर के हृदय में भारत माता का एक सुव्यवस्थित चित्र था। वे भी इसे आराध्य मानते थे और इसके वैशिष्ट्य की स्थापना के लिए सदैव चिंतित रहते थे।

उनका मानना था कि यह राष्ट्र एकाएक निर्मित नहीं हुआ अपितु सैकड़ों हजारों वर्षों के प्रयास से एक भौगोलिक और सांस्कृतिक एकता का निर्माण हुआ है। वे लिखते हैं, ''भारत राष्ट्र की एकता का मूल आधार संस्कृति (हिंदू) है जो समग्र देश में व्याप्त है। सांस्कृतिक एकता के संदर्भ में कोई भी राष्ट्र भारत का मुकाबला नहीं कर सकता। इसमें न केवल भौगोलिक एकता है अपितु उससे ज्यादा गहरी मूलभूत एकता है सांस्कृतिक एकता जो एक छोर से दूसरे छोर तक सारे देश में व्याप्त है।'' लेकिन वे धर्म, संस्कृति, जाति और भाषा की प्रतिस्पर्धी निष्ठा की प्रमुखता के विरोधी हैं। उनका मानना था कि इससे भारतीयता और भारत के प्रति निष्ठा पनपने में कठिनाई आती है और उन्होंने कहा भी ''मैं चाहता हूं कि लोग सर्वप्रथम भारतीय हों और अंत तक भारतीय रहें, भारतीय के अलावा कुछ भी नहीं।'' उन्होंने तो इस विचार का भी विरोध किया कि लोग यह कहें,'' मैं पहले भारतीय हूं और बाद में हिंदू या मुसलमान। मैं इससे संतुष्ट नहीं हूं। मैं बिल्कुल भी नहीं चाहता कि हमारी प्रतिबद्धता और समर्पण पर तनिक भी प्रभाव पड़े।''

 

डॉ. आंबेडकर का मानना था कि व्यक्तिगत स्वार्थ राष्ट्र की तुलना में सदैव पीछे रहना चाहिए। हम सभी को व्यक्तिगत स्वार्थों को देश हित से अलग रखना होगा अन्यथा हितों का टकराव समाज एवं राष्ट्र की एकात्मता के विपरीत जाता है। इसीलिए उन्होंने बहुत स्पष्टता के साथ कहा है, ''इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि मैं अपने देश को बहुत प्यार करता हूं। मेरे अपने हित और देश के हित के साथ टकराव होगा तो मैं अपने देश को सदैव प्राथमिकता दूंगा।''

 

यह उल्लेखनीय है कि डॉ. आंबेडकर ने अपने राजनीतिक जीवन में ऐसा कोई प्रसंग नहीं आने दिया जिससे कोई यह कह सके कि उन्होंने देशहित से समझौता किया और अपने तथा जाति समूह के हित को प्राथमिकता प्रदान की। अनेकानेक संदर्भों में केवल दो संदर्भों का उल्लेख करना अत्यंत समीचीन होगा। गोलमेज संमेलन में गांधी जी से टकराव के बाद, ब्रिटिश प्रधानमंत्री से 'पृथक चुनावी प्रवर्ग' की प्राप्ति के बावजूद उन्होंने राष्ट्रीय हित को ध्यान में रखते हुए अपने जातिगत हितों को तिलांजली देते हुए गांधी के साथ 1932 में पूना समझौता किया, जिसने इस देश को विभीषिका एवं सामाजिक बिखराव से बचाया। दूसरा उदाहरण उनके धर्म परिवर्तन संदर्भ में देखा जा सकता है। डॉ. आंबेडकर ने घोषणा की कि वे जन्मना हिंदू हैं, परंतु हिंदू रूप में मृत्यु को प्राप्त नहीं होंगे, यानी मत परिवर्तन करेंगे। उन्होंने 1936 में यह घोषणा की लेकिन 20 वर्षों का एक लंबा समय भारतीय हिंदू समाज को दिया कि वह अपनी कमियों को दूर करें और दलित, शोषित समाज के साथ समत्व और ममत्व का व्यवहार करें, जो संभव नहीं हुआ। अंतत: उन्होंने भारतीय भूमि में ही प्रतीकात्मक विरोध से विकसित बौद्ध मत को स्वीकार किया।

 

इस्लाम और ईसाइयत से दूर रहे बाबा साहेब

 

धनंजय वीर, वसंत मून और बाबा साहेब के लेखन से ही हमें अनेक उद्धरण प्राप्त होते हैं कि उनको इस्लाम और ईसाइयत में ले जाने का योजनाबद्ध रूप में सघन प्रयास हुआ परंतु उन्होंने स्पष्ट तौर पर यह स्थापित किया कि वे ऐेसे किसी मत-पंथ नहीं जाएंगे, जिसमें जातिगत भेदभाव, प्रजातीय भेदभाव हो और जो भारत राष्ट्र एवं भारतीय संस्कृति समाज के खिलाफ हो। इस्लाम और ईसाइयत के बारे में स्पष्टता से उन्होंने कहा,''यदि मैं इस्लाम या ईसाइयत को स्वीकार करता तो यह मेरी राष्ट्रीय भावना एवं राष्ट्रवाद के साथ समझौता होता क्योंकि दोनों ही मत-पंथों की निष्ठाएं अन्यत्र हैं।'' इन्हीं तत्वों को विश्लेषित करने के उपरांत शायद इसीलिए वीर सावरकर ने कहा था, ''बौद्ध आंबेडकर, हिंदू आंबेडकर ही हैं। वस्तुत: वे अब सही मायने में हिंदू शिविर में आ गए हैं।'' डॉ. आंबेडकर के लिए राष्ट्र सदैव सर्वोपरि रहा है और उन्होंने 31 मई 1952 में मुंबई में भाषण देते हुए कहा था, ''यद्यपि मैं कुछ उग्र स्वभाव का हूं और सत्ताधारियों से मेरा टकराव होता रहा है फिर भी मैं यह विश्वास दिलाता हूं कि अपनी विदेश यात्रा में भारत की प्रतिष्ठा पर आंच नहीं आने दूंगा। मैंने कभी भी राष्ट्रद्रोह नहीं किया है। गोलमेज परिषद में भी मैं राष्ट्रहित के मामले में गांधी जी से 200 मील आगे था।''

 

डॉ. आंबेडकर के जीवन लक्ष्य को अनेकानेक रूप में परिभाषित करने का प्रयास किया जाता है। विषमताओं और सदियों से संघर्षरत आंबेडकर को अनेकानेक स्वार्थी राजनीतिकों ने अपनी क्षुद्र राजनीति में कैद कर दिया है। परंतु वे सदैव राष्ट्र निर्माण और राष्ट्रोन्नति के लिए तत्पर और सन्नद्ध रहे। इसलिए उनके भाषण के एक अंश का उल्लेख प्रासंगिक है, ''मैं यह स्वीकार करता हूं कि कुछ बातों को लेकर सवर्ण हिन्दुओं से मेरा विवाद है परंतु मैं आपके समक्ष यह प्रतिज्ञा करता हूं कि मैं अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए अपना जीवन बलिदान कर दूंगा।''

 

राष्ट्र निर्माण ही बाबा साहेब का एकमात्र अभीष्ट था। इसीलिए उन्होंने जहां दलित, शोषित, वंचित समाज के उत्थान में अपना सर्वस्व लगाया वहीं उन्होंने संविधान के माध्यम से सर्वोपयोगी सर्वसमावेशी, ऐसे प्रावधान किए जिससे आज भारत समग्र दुनिया के सफलतम लोकतंत्र के रूप में स्थापित है।

 

बहुआयामी है बाबा साहेब का व्यक्तित्व

 

डॉ. भीमराव आंबेडकर का व्यक्तित्व एवं कृतित्व इतना विशाल एवं बहुआयामी है कि उसे एक लेख में समेटना संभव नहीं है इसलिए कुछ अन्य उपयोगी राष्ट्र निर्माण में सहायक विषयों का संाकेतिक उल्लेख ही संभव है, लेकिन राष्ट्रवाद के परिप्रेक्ष्य में इनके महत्व को नकारा नहीं जा सकता। भाषायी आधार पर राज्यों के गठन का विरोध, हिंदी की राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापना, संस्कृत भाषा की शिक्षा और गुणवत्ता, धारा 370 का विरोध, मतपरिवर्तन पर उनके विचार, धर्म की उपयोगिता का विचार, श्रमनीति, सुधार, शहरीकरण का महत्व, उनके द्वारा महाड सत्याग्रह, समान नागरिक संहिता एवं हिन्दू कोड बिल, श्रीमद् भगवद्गीता को प्रदत्त महत्व आदि अनेकानेक ऐसे विचार हैं, जिनसे उनकी राष्ट्रीय दृष्टि का ज्ञान होता है। इसलिए बाबा साहेब का समग्रता में अध्ययन करने की आवश्यकता है। बाबा साहेब के योगदान का स्मरण करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्रीगुरुजी ने 1973 में भीमराव साहित्य संघ, मुंबई के अध्यक्ष शिरीष कडलाक के नाम पत्र में लिखा था, ''वंदनीय डॉ. आंबेडकर की पवित्र स्मृति को नमन करना मेरा स्वाभाविक कर्तव्य है। भारत के संदेश की गर्जना द्वारा उन्होंने सारी दुनिया में खलबली मचाई, उन्होंने कहा कि दीन, दुर्बल, दरिद्र, अज्ञान में डूबे भारतवासी ही मेरे लिए ईश्वर स्वरूप हैं... उनकी असाधारण करामात है, उन्होंने राष्ट्र के ऊपर असीम उपकार किया है। वे ऐसे श्रेष्ठ व्यक्ति हैं कि उनसे उऋण होना कठिन है।''







 








-प्रो. श्रीप्रकाश सिंह




(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर हैं।) साभार- पाञ्चजन्य साप्ताहिक पत्रिका