विद्वान बनाम मौलिक चिंतक : डाॅ. चतुरानन ओझा


राहुल तथा रामविलास शर्मा में कौन अधिक विद्वान या मौलिक चिंतक थे इस बहस के बहाने आज देश दुनिया में मौलिक चिंतन कहां से और कैसे पैदा हो सकता है इस पर विचार करते हैं।


मौलिक चिंतक और विद्वान में फर्क होता है। विद्वान आमतौर पर मौलिक चिंतक नहीं होते हैं, वे सामाजिक राजनीति व प्रकृति की गतिविधि के बारे में विभिन्न चिंतकों के विचारों की व्याख्या तथा समालोचना पेश करते हैं,जबकि चिंतक प्रकृति तथा लैबोरेट्री तथा सामाजिक संघर्षों में लगे उत्पादक शक्तियों तथा सामाजिक शक्तियों की गतिशीलता के आधार पर सही या गलत चिंतन प्रक्रिया को पेश करने का साहस करते हैं। 


महान वैज्ञानिक विश्वविद्यालयों में अपने पूर्व के लोगों के खोजो का अध्ययन विश्लेषण और समालोचना ही पैदा नहीं करते हैं बल्कि डॉन की तरह लंबी यात्रा पर निकल जाते हैं जीवो के दुनिया का अध्ययन के लिए फराडे और आइंस्टीन जैसे वैज्ञानिक प्रकृति के साथ संघर्ष और टकराव में अपनी चिंतन प्रक्रिया को गति देते हैं।  कोई विद्वान सामाजिक व राजनीतिक आंदोलनों को चलाने वाले नेताओं व चिंतकों के विचारों की व्याख्या तथा समालोचना पेश करते हैं, यही विद्वान जब सामाजिक शक्तियों को संगठित करने लगते हैं, उन्हें संचालित करने लगते हैं, उनके संघर्षों के हिस्सेदार बन कर उनका विश्लेषण करने लगते हैं तब वे विद्वान से चिंतक होने की दिशा में कदम बढ़ा चुके होते हैं।


राहुल सांकृत्यायन तथा रामविलास शर्मा दोनों विद्वान हैं, दोनों ने काफी अध्ययन किया और लिखा है। राहुल सांकृत्यायन ने प्रोफेसररी और लिखने के अलावे सामाजिक शक्तियों को संगठित करने, उनकी गतिशीलता का अध्ययन करने तथा समाज को बदलने में सीधे भागीदारी की है। इस नाते दुनिया के विभिन्न चिंतकों की व्याख्या व समालोचना करने की अलावे अपने अनुभव के आधार पर कई रचनाओं में उनकी चिंतन प्रक्रिया सामने आती है। इस मायने में विद्वान होने के बावजूद रामविलास शर्मा राहुल सांकृत्यायन से काफी पीछे रह जाते हैं, क्योंकि उनका पूरा जीवन विश्वविद्यालय, किताबों तथा व्याख्यान के दायरे में सिमट कर रह जाता है। इसीलिए वे सामाजिक आंदोलन में हिस्सेदारी कर उसकी व्याख्या या उसे गति देने के बारे में अपनी चिंतन प्रक्रिया को विकसित नहीं कर सके। 


प्रेमचंद या दूसरे लेखक इसी मायने में महान आलोचकों से आगे निकल जाते हैं, क्योंकि सामाजिक गतिशीलता तथा वर्ग संबंधों का अध्ययन करके वे अपने मौलिक चिंतन को प्रस्तुत करते हैं। हां, उनके वैचारिक पूर्वाग्रह व उनके आदर्श उनके मौलिक चिंतन में कई सारे भटकाव ला देते हैं। लेकिन आजकल विश्वविद्यालयों में बड़े बड़े आलोचक ही लेखक कवि पैदा कर रहे हैं। डॉ नामवर सिंह तो इस मायने में काफी सफल भी रहे हैं। अब चिंतन प्रक्रिया की जमीन हमारा समाज और सामाजिक आंदोलन नहीं रहा, बल्कि यह जमीन विश्वविद्यालयों की कुर्सियां और मंडली बन गई है। वित्त पूंजी के लूट का छोटा हिस्सा इन बुद्धिजीवियों को अनुदान के रूप में मिलते रहता है। ऐसे ही बुद्धिजीवियों ने उत्तर आधुनिकतावाद नाम के जिस सिद्धांत को विश्वविद्यालय के लैबोरेट्री में पैदा किया है, उसने नव उदारवादी आर्थिक सिद्धांतों तथा एनजीओ मारका समाज कल्याणकारी कामों के पूरे स्पेस को हथियाकर मौलिक चिंतक बन गये हैं। यह उत्तर आधुनिकता वादी सिद्धांत मेहनतकश आम लोगों के लिए इस कोरोना वायरस से भी ज्यादा तबाही लाई है और इस तबाही को फैलाने में हमारे तथाकथित प्रगतिशील और कुछ पुराने अवसरवादी मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों ने बड़ी भूमिका अदा की है और इसके अनुरूप वित्त पूंजी के मालिकों ने उन्हें पुरस्कृत भी किया है।


ऐसे मौलिक चिंतक सिर्फ और सिर्फ पूंजी के मालिकों की सेवा करने वाले हैं। सरकार और विपक्ष की तरफ से आपस में लड़ने वाले ये बुद्धिजीवी जमात उदारवादी बनकर  तथा नंगयी के साथ, हर हालत में पूंजी की हिमायती ही करते हैं। वित्त पूंजी के द्वारा दोनों को अलग अलग हाथों से माल मुद्रा सप्लाई होते रहता है।


आज मजदूरों के हाथ बेकार होकर बैठे हुए हैं। पूरी दुनिया में लॉक डाउन है, तो इन मौलिक चिंतकों के विचार भी नये चिंतन पैदा नहीं कर पा रहे है, क्योंकि माल मुद्रा का सप्लाई आने वाले वर्षों में विश्वविद्यालयों में बड़ी ही तेजी से घटने वाली है। इसलिए आज के समय में सोचने विचारने वाले लोग जनता के विश्वविद्यालय में आएं, जनता के सोचने की प्रक्रिया को गति दें, उनके संघर्षों में भागीदारी करें, उत्पादन की तबाह हालत और सामाजिक वर्गीय टकराव का अध्ययन करें और जनता के विश्वविद्यालय से मौलिक चिंतन को तैयार करके जनता को उनके व्यापक संघर्ष के लिए, उनके और अपने जीवन तथा समाज को बेहतर बनाने के लिए लौटा दें।