ऐसे ही नहीं बन गया स्थायी नौकरी का कानून : चतुरानन ओझा


1 म ई को मजदूर संघर्ष के  विभिन्न आयामों पर चर्चा होती है। काम के घंटे आठ करने को लेकर लाठी, गोली, फांसी, दमन सब कुछ झेलने के बाद मुश्किल से यह उपलब्धि मिली थी। शासक ने किसी दया के कारण नहीं बल्कि मजदूरों कि बढ़ती ताकत से घबरा कर यह मांग मानी है और मजदूर शक्ति कमजोर होने पर इसे ख़तम करने में जरा भी संकोच नहीं होगा, इस बात से वाकिफ हो यह भी साफ हो गया था कि सारी समस्याओं का समाधान तो मेहनतकश की सत्ता में ही हो सकता है। पेरिस कम्यून में 70 दिन तक यह सत्ता चल पाई थी। सचेत रूप से जब 1917 में मेहनतकश की पार्टी के नेतृत्व में जब यह सत्ता  स्थापित हो गई तो दुनिया के शासक परेशान हो गए। कहीं हमारे मेहनतकश भी सत्ता पर कब्जा ना कर लें, इस चिंता ने  शासकों को  विवश किया कि मेहनतकश के भत्ते बढ़ा दे, उनकी नौकरी को स्थाई करने के नियम बना दे, पेंशन, प्रोविडेंट फंड, का इंतजाम कर दे, सस्ती शिक्षा, चिकित्सा, बिजली, पानी दे और जनकल्याणके कार्य क्रम लागू कर  उन्हें यह यकीन दिलाए कि सत्ता हाथ में लेने की कोई जरूरत नहीं है। इसके बिना भी वह सब मिलेगा जो मेहनतकश की सत्ता में मिलता है। मेहनतकश द्वारा सत्ता हाथ में लेने के डर ने  ही ये सब दुनिया कि जनता को दिलाने का काम किया। भारत में भी ऐसा हुआ।  यहां के जनता ने भी स्थाई नौकरी का स्वाद चखा। नौकरी अब नीची  चाकरी नहीं रह गई। स्थाई नौकरी, पेंशन, प्रोविडेंट फंड, जनकल्याण के तहत शिक्षा, इलाज भी मिलने  की व्यवस्था एक हद तक हो गई।  किन्तु पढ़ाई के  पाठ्यक्रम में यह कभी नहीं बताया गया कि भारत और दुनिया में स्थाई नौकरी कब से मिलने लगी। लिहाजा हमारा पढ़ा लिखा तबका भी यह मान कर चल रहा था कि उनके पास योग्यता है इसलिए उन्हें  स्थाई नौकरी मिली है और यह क्रम अनन्त काल तक जारी रहेगा। जब समाजवादी सत्ता का दुनिया  में कोई देश नही रहा तब शासक डर से मुक्त हो गए। अब एक के बाद एक स्थाई नौकरी के खात्मे से लेकर  उन सारे जनकल्याण के कार्यक्रमों को ख़तम करने की तरफ सरकारों ने कदम  उठाए हैं। काम के घंटे भी बढ़ा दिए गए हैं। शिक्षा और चिकित्सा भी मुनाफे कि चीज मान ली गई है। ऐसे में संघर्ष ही एकमात्र रास्ता है।
साभार असीम सत्‍यदेव