भयभीत डॉक्टर और भटकते मरीज : चतुरानन ओझा


  
जो मेडिकल स्टाफ कोरोना की जांच और मरीजों की चिकित्सा कर रहा है उसकी सेवा तो सराहनीय है और वंदनीय है। वे अपने आप को जोखिम में डालकर संक्रमित और संभावित मरीजों की जांच कर रहे हैं।परंतु अन्य डॉक्टर तो केवल खानापूर्ति कर रहे हैं। मेरे एक मित्र आज कान और दांत की जांच के लिए भोपाल के सरकारी अस्पताल जेपी में गये थे।नाक कान वाले डॉक्टर साहब के पास जब वे अपने ओपीडी कार्ड के साथ पेश हुये तो उन्होंने सोशल डिस्टेंसिंग का पूरा पालन करते हुए उन्हें लगभग 10 मीटर दूर स्टूल पर बिठाया।स्टूल भूले भटके आने वाले सभी मरीजों के लिए है।अपनी सीट पर बैठे डेढ़ मीटर की दूरी से पूछा कि क्या तकलीफ है। बताया कि कान में हल्की सी सनसनाहट सी होती है दर्द भी है।उनके पास ही मशीनें रखी थी।परंतु कोरोना के भय से उनका प्रयोग बंद हैं। वहीं बैठे बैठे उन्होंने कुछ एंटीबायोटिक लिख दी।कहा अभी जांच बंद हैं।जब लॉकडाउन खत्म हो जाएगा तब आइएगा मैं जांच कर लूंगा।फिर वे दंत चिकित्सक के पास पहुंचे।उन्होंने भी डेढ़ मीटर दूर से पूछा क्या कोई दर्द है।उन्होंने कहा नहीं परंतु खाना फंस जाता है।फीलिंग कराना चाहिए।उन्होंने भी वहीं से एक पर्चा लिखकर दे दिया और कहा कि आप माउथ वास करते रहिए।कोरोना के बाद जांच कर लूंगा।उन्होंने कहा कि मशीन तो रखी हैं ।वे बोले कि लॉक डाउन में मशीनें बंद हैं।लॉकडाउन के बाद आइएगा देखेंगे। और उन्होंने उनसे मुंह खोलने को कहा।तथा डेढ़ मीटर दूर से छोटी टॉर्च जलाई और वहीं से देख कर कहा कोई दिक्कत नहीं है।इस पेन नुमा टोर्च की रोशनी का क्या मतलब होगा जब उनके कमरे में पहले ही तीन-चार ट्यूब लाइट जल रही थी। उस छोटी सी टॉर्च से डेढ़ मीटर की दूरी से कोई क्या देख सकता है?अस्पतालों में ऐसे इलाज का और अस्पताल चलाने का क्या औचित्य है। हां उन्होंने एक नेक सलाह जरूर दी कि यह अस्पताल खतरनाक है। अतः आप यहां से जितनी जल्दी निकल जाए उतना अच्छा होगा। अगर सरकार ऐसे नाम के अस्पतालों को बंद ही कर दे तो जनता का कुछ पैसा तो बचेगा।


साभार रघु ठाकुर