दर्द का संक्रमण : सतीश जैसल 


न जाने क्यूँ ये दर्द मुझे अपना सा लगता है।
तपती सड़कें,नन्हें पांव और मिलों का दर्दनाक सफर मुझे अपना सा लगता है।।
मैंने देखा है,अंधेरों में रहकर चिराग जलाने वाले लोगों को।
मैंने देखा है खुद को जलाकर भट्टियां जलाने वाले लोगों को।।
मैंने देखा है धूप में जलकर छाया के महल बनाने वाले लोगों को।
पता नही क्यूँ ये दर्द मुझे अपना सा लगता है।।
मैंने देखा है आशुओं कि समंदर को खाली दिलों की नली।
मैं बहते हुए न जाने क्यूँ ये दर्द मुझे अपना सा लगता है।।
कर सकते हैं वो,जो अपनी क्षमता से,ये ऊंट के मुहँ में जीरा सा लगता है।
साथ लड़ने की जिद्द है पर नायक नही है ये।।
न जाने क्यूँ ये मुकनायक मुझे अपना सा लगता है।
भूख,प्यास और बेरुखी से ठहर गयी जिंदगी।।
फिर भी छालों के साथ चलना पैदल मुझे अपना सा लगता है।
मैने देखा है लोगों को दर्द भूख और लाचारी से स्वतंत्र होते हुए।।
इस दर्द,भूख से बंध जाना मुझे अपना सा लगता है।
मैने देखा है जमाने को बंधन बनाते हुए,इन बंधनो का आज टूटते जाना मुझे अपना सा लगता है।।
मर कर भी खुली रखी आंखे,ये जिन्दा रहने की जिद्द और आस मुझे अपना सा लगता है।
गुमनाम मौतों पर जहाँ रोता नही कोई,अब हंसकर जीना ही मुझे अपना सा लगता है।।
ये दर्द का संक्रमण है,जो छूने से नही दिलों से दूर रहने से बढ़ता है।
हां,मैं भी संक्रमित हूँ,शायद इसीलिये ये दर्द मुझे अपना सा लगता है।।
              
            डॉ सतीश चंद्र जैसल
              असिस्टेंट प्रोफेसर
         पत्रकारिता एंव जनसंचार
उत्तर प्रदेश राजऋषि मुक्त विश्वविद्द्यालय प्रयागराज