इक़बाल, ग़ालिब और मैं।

तेरे शीशे में मय बाक़ी नहीं है,
बता क्या तू मेरा साक़ी नहीं है।


समन्दर से मिले प्यासे को शबनम,
बख़ीली है ये रज़्जाकी नहीं है।


फ़ारिग तो न बैठेगा मेरा मेहशर में जुनूँ मेरा,
या अपना गिरेबाँ चाक या दामने यज़दाँ चाक।


या रब ये जहाँ गुज़राँ खूब है लेकिन,
क्यों ख़्वार हैं मर्दा ने सिफा कैशो हुनरमंद।


हाज़िर हैं कलीसा में कबाबो मय गलगों,
मस्जिद में धरा क्या है बज़ुज मोइजा ओ पिन्द।


फिरदौस जो तेरा है किसी ने नहीं देखा,
फिरंग का हर क़रिया है फिरदौस की मानिन्द।


चुप रह न सका हजरते यजदाँ में भी इक़बाल,
करता कोई उस बन्दाए गुस्ताख़ का मुँह बन्द।


ज़ाहिद शराब पीने दे मस्जिद में बैठ कर,
या वो जगह बता दे जहाँ पर खुदा न हो।


ऐसी जन्नत का क्या करे कोई,
जिसमें लाखों बरस की हूरें हों?


रोज़े महशर को हम घुस जाएँगे बेख़ौफ जन्नत में, वहीँ से आए थे आदम--
हमारे बाप का घर है।




 सैय्यद मुहम्मद आलमगीर 
 मौजा़ चक मुका़म अली।