अच्छा आदमी अच्छी ग़ज़ल नहीं कह सकता

'रही' मासूम रज़ा एक बहुत आकर्षक शख्सियत के मालिक थे। न सिर्फ देखने सुनने में बल्कि बातचीत करने में भी, हाज़िर जवाबी, जुमलेबाजी और पते की बात कहने में भी उनका मुकाबला कम ही लोग कर पाते थे। मुझे अलीगढ़ में उन्हें जानने समझने  का कुछ मौका मिला था । मैंने 'राही' साहब पर एक संस्मरण भी लिखा है जो छपा भी था पर न जाने कहां खो गया।
आज 'राही' साहब के हवाले से एक दिलचस्प बात याद आ गई.. सुनिए।


'राही' साहब जब अलीगढ़ में पीएचडी कर रहे थे तब भी वो एक मशहूर और स्थापित शायर थे। उनका बड़ा नाम था। माना जाता था कि 'मजाज़' के बाद 'राही' दूसरे शायर थे जिन्हें अलीगढ़ में अपने सिर पर बिठाया था।
कुछ नए शायर 'राही' साहब से इस्लाह लिया करते थे। इस्लाह लेने वालों में एक साहब बहुत सीधे शरीफ, सज्जन आदमी थे जो फारसी में पीएचडी कर रहे थे। उनकी अच्छी खासी उम्र थी। शादीशुदा थे। बाल बच्चे थे। बहुत मेहनत और लगन से अपने खानदान को पालपोस रहे थे। ग़ज़ल कहने का शौक था। 'राही' साहब को आपनी गजलें दिखाया करते थे ।
'राही' साहब उनकी ग़ज़लें देखते थे।रदीफ़ क़ाफ़िया बिल्कुल दुरुस्त होता था। पूरी ग़ज़ल बहर में हुआ करती थी। हर गजल में कम से कम पांच शेर हुआ करते थे। सब कुछ क़ायदे और उसूल से निभाया जाता था। लेकिन एक तरह की सपाट बयानी दिखाई देती थी। कभी कुछ नया नज़र न आता था। कभी कुछ लीक से हटा हुआ न दिखाई देता था।
कई साल तक 'राही' साहब  उनकी गजलें देखते रहे और मशवरे देते रहे। एक दिन आखिरकार 'राही' साहब ने उनसे कहा कि भाई ऐसा है कि तुम ग़ज़ल न कहा करो।
उन्होंने कहा, क्यों राही साहब?


'राही' साहब ने कहा, यार तुम बहुत अच्छे, ईमानदार इंसान हो। तुम एक अच्छे रिसर्चर हो । तुम एक अच्छे शौहर हो, अच्छे बाप हो... अच्छे पड़ोसी हो...अच्छे दोस्त हो....  तुम इतने अच्छे हो कि उतना अच्छा आदमी अच्छी ग़ज़ल नहीं कह सकता।


Ashgar Wajahat