बालश्रम योजना पर निर्णायक कदम उठाये श्रम मंत्रालय - नवीन तिवारी


जब ‘गरीब’ माता-पिता के बच्चों की बात आती है तब नीति बनाने वालों की सोच यह होती है कि बच्चों द्वारा काम किया जाना तो अनिवार्य है। उनका मानना है कि बच्चा इसलिये काम कर रहा है कि परिवार की जीविका उसकी आमदनी पर ही निर्भर है। उनका मानना है कि अगर बच्चे को काम से हटा दिया जायेगा तो परिवार भूखा मर जायेगा। उनके मत के अनुसार बाल श्रम एक‘कठोर सच्चाई’ है। यह मान्यता कि बाल श्रम अपरिहार्य है और उसके बारे में कुछ नहीं किया जा सकता, भारत में बाल श्रम की नीति के सभी पहलुओं को प्रभावित करती है। यह बात ही मुख्य रूप से इस दृष्टिकोण के लिये जिम्मेदार है कि सबसे अच्छा तरीका यह है कि बाल श्रम के सबसे ज्यादा शोषक तरीकों पर पहले आघात किया जाये।


विभिन्न ‘खतरनाक’ उद्योगों में काम पर लगे बच्चों का ही सबसे ज्यादा शोषण होता है। वे ही बाल श्रमिक के रूप में सबसे स्पष्ट रूप से नजर आते हैं। परिणाम यह हुआ है कि इन उद्योगों के बाल श्रमिकों पर ही जोर रहा है और बाल श्रम के अन्य रूपों को छोड़ दिया गया है। कृषि क्षेत्र के बाल श्रमिकों की तो खासतौर पर उपेक्षा हुई है।


इस पहलू की उपेक्षा क्यों की गयी है, इसका अन्य कारण यह है कि नीति बनाने वाले और कार्यक्रमों को लागू करने वाले लोग संख्या के जाल में फंस जाते है। कृषि के क्षेत्र में बाल श्रमिकों की भारी तादाद से वे पूरी तरह डर जाते है। वे सोचते हैं कि “क्या होगा जब खेती के काम में लगे सभी बच्चे काम करना बन्द कर देंगे ?’’ परिणाम यह होता है कि इस क्षेत्र के बाल-श्रम को उचित बताने के लिये या तो कहा जाता है कि कृषि के क्षेत्र में बाल श्रम है ही नहीं, या फिर उसे बाल श्रम माना ही नहीं जाता, बल्कि कहा जाता है कि यह बच्चों का ऐसा काम है जो बच्चे की सेहत के लिये अच्छा होता है