*रौशनी*

दिए की जलती हुई रोशनी वह भी थक चुकी है
तेरी यादें संजोए हुए
न जाने कितने तारे गिन गिन के थक चुकी है
किसी के आने की आहट सुनी नजरे
सुनसान राहों पर भटका करती है
कहीं तुम तो नहीं
ओ मधुर मिलन की यादें कैसे भूलू
प्यार करने की सजा जो खुद पा लिया
दिए कि लौ 
खुद परवाने के ऊपर जल चुकी है
फिर उसे क्यों मिटाने चले हो
प्यार खुदा की इबादत है
इसे समझा करो
प्यार प्यार है उसे सजा का नाम मत दो
प्यार को प्यार दो
सजा नहीं



बीना मिश्रा