कानपुर इन्‍काउन्‍टर प्रजातन्‍त्र पर सवालिया निशान

8 पुलिस कर्मियों का हत्यारा विकास दुबे किस प्रकार कानपुर से 30 किलोमीटर पहले नाटकीय ढंग से एक सोची समझी रणनीति के तहत एनकाउंटर में मारा गया ,प्रदेश में ध्वस्त कानून व्यवस्था की एक बानगी है। सभी एनकाउंटर की एक जैसी ही कहानी है। क्या यह संभव है कि एक अपराधी कितना भी महाबली हो दर्ज़नो आधुनिक शस्त्रों से लैस पुलिस के हथियार छीन कर हमला करने की कल्पना कर सकता है ?
किस प्रकार 8 पुलिस कर्मियों के नरसंहार का  5 लाख का इनामी अभियुक्त लगभग एक सप्ताह तक 4  राज्यों से  1000 किलोमीटर घूमता टहलता  पुलिस की आंख में धूल झोंकता  निश्चिंत होकर उज्जैन के महाकाल में आरती करते हुए आत्मसमर्पण करता है और आत्म विश्वास से लबरेज  कहता है कि" मै कानपुर वाला विकास दूबे हूं ।" 
यहां तक एक सिपाही द्वारा थप्पड़ मारे जाने पर" उसको देख लेने की बात करता है।"
 यह  सारा खेल  प्रदेश में व्याप्त पुलिस , माफिया और राजनीतिक  गठजोड़ की कहानी है जो आम आदमी का जीना नरक बना दिया। यह उस भा ज पा और आरएसएस के राज में जो यह कह कर सत्ता में आयी, "सबको देखा बार बार हमको देखो एक बार।"
ऐसा नहीं है तो  क्यों नहीं पुलिस सैकड़ों दिन दहाड़े हत्या, बलात्कार , लूट पाट यहां तक की जेल में बंद होने के बाद भी फिरौती आदि का व्यवसाय धड़ले से चला रहे अपराधियों को  सजा दिला पाती।
 इस मामले में 2001में भाजपा के राज्य मंत्री स्तर के शुक्ला की थाने में हत्या के अभियुक्त विकास दूबे को सज़ा न दिला पाना क्या जंगल राज़ नहीं है, क्या ऐसी सरकार को एक दिन भी सत्ता में रहने का हक है। सरकार ने उसको क्यों नहीं फांसी की सजा दिला पायी।
 क्या लोकतांत्रिक देश में सरकार अपने दायित्व का निर्वाह न कर पुलिस को प्रॉसिक्यूटर और जज दोनों का अधिकार दिया जाना आत्म हत्या नहीं है। 
क्या गारंटी है कि पुलिस हमारा आप का फर्जी एनकाउंटर के नाम पर हत्या नहीं करेगी। 
यह स्पष्ट रूप से तानाशाही के लक्षण  हैं जिसका हर कीमत पर विरोध किया जाना चाहिए।
हरीश चन्द्र आईएएस (अवकाश प्राप्त )