मैं राख के सिवा कुछ भी तो नही,
फिर भी किसी को कुछ नही गिनता हूँ।
अहम के नशे में बस डूबा रहता,
और लोगों से जलता रहता हूँ।
जब तक जीता झूठी शान दिखाता,
अकड़ दिखा तिल-तिल जीता-मरता हूँ।
अपनी मन मर्जी का मालिक बनता,
खुद ही खुद की गति बनाता हूँ।
मैं एक शरीर, मिट्टी से बना हुआ,
अन्त में राख ही तो बन जाता हूँ।
जानता हूँ पर समझना नही चाहता,
शुभ कर्म कभी नही करना चाहता हूं।
जैसे आता, वैसे ही विदा हो जाता,
जीवन को सफल नही बनाता हूं।
मैं राख के सिवा कुछ भी तो नही,
पर जब तक जीता बहुत इतराता हूँ।
नाम- मंजू श्रीवास्तव
कानपुर (उत्तर प्रदेश)