राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने शासन द्वारा किसी प्रकार का पक्षपात किए जाने पर तज्जन्य दुष्परिणामों के प्रति आगाह करते हुए 'परशुराम की प्रतीक्षा' में स्पष्ट लिखा है-
घातक है, जो देवता-सदृश दिखता है,
लेकिन, कमरे में गलत हुक्म लिखता है।
जिस पापी को गुण नहीं, गोत्र प्यारा है,
समझो, उसने ही हमें यहाँ मारा है।
जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता है,
या किसी लोभ के विवश मूक रहता है,
उस कुटिल राजतंत्री कदर्य को धिक् है,
वह मूक सत्यहंता कम नहीं बधिक है।
जा कहो, पुण्य यदि बढ़ा नहीं शासन में,
या आग सुलगती रही प्रजा के मन में;
तामस बढ़ता यदि गया ढकेल प्रभा को,
निर्बन्ध पंथ यदि मिला नहीं प्रतिभा को,
रिपु नहीं, यही अन्याय हमें मारेगा,
अपने घर में ही फिर स्वदेश हारेगा।
ईश्वर शासन-सत्ता के नियंताओं को सदविवेक दें। हम तो बस यही कामना कर सकते हैं।