*अरविन्द पाण्डेय द्वारा*
सलेमपुर देवरिया। हिन्दी साहित्य को अपने ललित निबंधों और लोक जीवन की सुगंध से सुवासित करने वाले विद्यानिवास मिश्र ऐसे साहित्यकार थे जिन्होंने आधुनिक विचारों को पारंपरिक सोच में खपाया था। साहित्य समीक्षकों के अनुसार संस्कृत मर्मज्ञ मिश्र ने हिन्दी में सदैव आँचलिक बोलियों के शब्दों को महत्व दिया। मिश्र के अनुसार हिन्दी में यदि आँचलिक बोलियों के शब्दों को प्रोत्साहन दिया जाये तो दुरूह राजभाषा से बचा जा सकता है जो बेहद संस्कृतनिष्ठ है।
वरिष्ठ आलोचक एवं कवि डा. रामदरश मिश्र के अनुसार विद्यानिवास मिश्र संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। लेकिन उनमें लोक जीवन को लेकर गहरी आस्था थी। एक तरफ तो वह परंपरा के मूल्यों पर बल देते थे वहीं वह लोक जगत के सौन्दर्य के पक्षधर भी थे।
डा. मिश्र के अनुसार आँगन का पक्षी, कौन तू फुलवा बीननहारी, गाँव का मन आदि उनके ऐसे तमाम निबंध हैं जिनमें लोक जीवन के माध्यम से भारतीयता और परंपरा के मूल्यों को पकड़ने का प्रयास किया गया है। इसके अलावा उनकी रचनाओं में टिकुआ, अमिया, निम्बौरी ,नीम का फल, जैसी शब्द छवियों के साथ लोक जीवन का सौन्दर्य बड़े प्रभावशाली ढंग से उभरकर सामने आता है।
मिश्र के ललित निबंधों की चर्चा करते हुए मनु शर्मा ने कहा कि उनमें उद्धरण बहुलता नहीं होती। उनकी सरसता कहीं कमजोर नहीं होती। यदि उनमें किसी चीज की प्रधानता है तो आनंद तत्व की। हिन्दी और संस्कृत के प्रकांड विद्वान विद्यानिवास मिश्र लेखनकर्म के अलावा शिक्षण और पत्रकारिता से भी जुड़े रहे।
शुरूआत में वह मध्य प्रदेश सरकार के सूचना विभाग से संबद्ध रहे। बाद में वह गोरखपुर विश्वविद्यालय काशी विद्यापीठ संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय सहित विभिन्न शिक्षण संस्थानों से संबद्ध रहे। वह कुछ समय एक अमेरिकी विश्वविद्यालय के अतिथि प्रोफेसर भी रहे।
विद्यानिवास मिश्र ने कुछ वर्ष नवभारत टाइम्स समाचार पत्र के संपादक का दायित्व भी संभाला। उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ के मूर्ति देवी पुरस्कार के के बिड़ला फाउंडेशन के शंकर सम्मान से नवाजा गया। भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री और पद्मभूषण से सम्मानित किया। राजग शासनकाल में उन्हें राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया गया। विद्यानिवास मिश्र का 14 फरवरी 2005 को एक कार दुर्घटना में निधन हो गया था। उनके सुकोमल ललित निबंध भारतीय मानस को परितृप्त करते रहेंगे।