आईये जानते है प्रसिद्ध उपन्यास देवकीनंदन खत्री के बारे में
*अरविन्द पाण्डेय द्वारा*
सलेमपुर देवरिया। देवकीनन्दन खत्री के सृजनात्मक सरोकार अपने समकालीन लेखकों से भिन्न थे। उन्होंने न तो तत्कालीन जीवन के वैविध्य पहलुओं को अपने लेखन में समेटा, न ही साहित्य की उत्कृष्टता के मानदण्डों पर रचना विधान को कसा।
‘वह ‘चन्द्रकान्ता’ का युग था। वर्तमान युग के पाठक उस युग की कल्पना नहीं कर सकते जब देवकीनन्दन खत्री के मोहजाल में पड़कर हम लोग सचमुच निद्रा और क्षुधा छोड़ बैठे थे।’ आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के बाद ‘सरस्वती’ के सम्पादक हुए पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की इस टिप्पणी में रंचमात्र भी अतिशयोक्ति नहीं है। प्रेमचन्द पूर्व उपन्यास लेखन में देवकीनन्दन खत्री लोकप्रियता की जिस पराकाष्ठा पर पहुंचे वहाँ अन्य कोई उपन्यासकार नहीं पहुँच पाया। उन्हें हिन्दी का पहला ऐसा मौलिक उपन्यास लेखक माना गया जिनके उपन्यासों की सर्वसाधारण में धूम हुई। उनकी तुलना अंग्रेजी के जासूसी उपन्यासकार कॉनन डायल से की जा सकती है।
खत्री जी ने शैशवकाल हिन्दी उपन्यास लेखन के दौर में नितान्त भिन्न और सघन रचना संसार को जन्म दिया। रहस्य, तिलिस्म और जादुई मायाजाल को रचकर कथ्य, भाषा और शैली की दृष्टि से उन्होंने अपने समय से आगे का उपन्यास दिया। उन्होंने तिलिस्मी-ऐयारी उपन्यास के प्रवर्तक बनकर मनोरंजन धर्मी, घटना-प्रधान उपन्यासों की परम्परा की नींव डाली। उनके उपन्यासों के रहस्य-रोमांच से भरपूर कथ्य, किस्सागोई के जादू और बोलते हुए गद्य ने असंख्य लोगों में हिन्दी सीखने और पढ़ने की ललक ही पैदा नहीं की बल्कि अनेक लोगों की लेखकीय क्षमता को उकसाकर उन्हें साहित्य-सृजन की ओर उन्मुख भी किया।
देवकीनन्दन खत्री का जन्म 18 जून, 1861 को मुजफ्फरपुर में हुआ और निधन 1 अगस्त, 1913 को। खत्रीजी को बचपन में उर्दू, फारसी की ही शिक्षा मिली। बड़े होने पर काशी में रहते हुए उन्होंने हिन्दी, अंग्रेजी और संस्कृत का ज्ञान प्राप्त किया। गया के टिकारी राज्य में उनकी पैतृक व्यापारिक कोठी थी, जिसकी जिम्मेदारी उन्हीं पर थी। टिकारी में रहकर उन्होंने अपने इस दायित्व का निर्वाह किया। टिकारी राज्य में काशी नरेश ईश्वरी नारायण सिंह की बहन ब्याही थी। इसी कारण काशी नरेश से उनके अच्छे सम्बन्ध बन गये टिकारी राज्य का प्रबन्ध सरकार के हाथ में चले जाने के बाद खत्री वहाँ का कारोबार छोड़कर स्थायी रूप से काशी चले आये। काशी नरेश की कृपा से उन्हें चकिया और नौगढ़ के जंगलों के ठेके मिल गये, जिसके सिलसिले में वे निर्जन और बीहड़ जंगलों में खूब घूमे। ऐतिहासिक इमारतों के खण्डहरों की खाक छानी। इस तरह से उनके काम ने इतिहास और प्रकृति के साथ उनका रागात्मक सम्बन्ध जोड़ा और उनकी उर्वर कल्पना शक्ति में रहस्य और रोमांच के एक-से एक नये रंग भर दिये। ठेकेदारी का काम हाथ से निकल जाने के बाद उन्होंने रहस्य-रोमांच के उन्हीं रंगों को कागज पर उतारना शुरू कर दिया और इसी क्रम में बनती चली गयी तिलिस्म और ऐयारी के अभूतपूर्व कारनामों से भरपूर उपन्यासों की श्रृंखला।
खत्री जी का पहला उपन्यास ‘चन्द्रकान्ता’ सन् 1888 में प्रकाशित हुआ। उसके बाद उपन्यासों की भूंखला चल निकली। उनके ‘नरेन्द्र मोहनी’, ‘कुसुम कुमारी’, ‘चन्द्रकान्ता सन्तति’, ‘वीरेन्द्र वीर’, ‘कटोरा भर खून’, ‘काजर की कोठरी’, ‘भूतनाथ’, ‘लैला-मजनू’ और ‘गुप्त गोदना भाग-1’, ‘नौलखा हार’ तथा ‘अनूठी बेगम’ आदि उपन्यास प्रकाशित हुए चन्द्रकान्ता’, चन्द्रकान्ता सन्तति’ और ‘भूतनाथ’ की प्रमुख रचनाएँ मानी गयी हैं। अकेले ‘चन्द्रकान्ता’ और ‘चन्द्रकान्ता सन्तति’ ही उन्हें रहस्य और रोमांच के शिरोमणि उपन्यासकार का दरजा दिलाने में समर्थ हुई। ‘चन्द्रकान्ता सन्तति’ के चौबीस भाग प्रकाशित हुए।
चन्द्रकान्ता’ से रातों रात चर्चित होनेवाले खत्रीजी को हिन्दी लेखकों के आक्रामक रवैये का सामना करना पड़ा। लज्जाराम मेहता के सम्पादन में प्रकाशित ‘वेंकटेश्वर समाचार’ और खत्री जी के संरक्षण और माधव प्रसाद मिश्र के सम्पादन में प्रकाशित ‘सुदर्शन’ के पृष्ठों पर ‘चन्द्रकान्ता’ और ‘चन्द्रकान्ता सन्तति’ काफी समय तक लम्बी बहस का विषय बने। ‘सरस्वती’ में खत्रीजी के विरुद्ध एक उत्तेजक टिप्पणी प्रकाशित हुई, जिनमें उनपर आरोपों की बौछार करते हुए कहा गया-‘वह भीष्म और द्रोण की सन्तानों को पथभ्रष्ट कर रहे हैं। हिन्दी में ‘चन्द्रकान्ता’ और ‘चन्द्रकान्ता सन्तति’ जैसे उपन्यासों के लेखन के द्वारा हिन्दी- भाषा की हत्या का पाप ले रहे हैं, जो कि नर-हत्या से भी अधिक भयंकर है। ऐसी सन्ततियों की रचना में कोई लेख काय कुशलता नहीं। यह भाषा का दुरुपयोग और मानव समाज में भारी शत्रुता का काम है।’
देवकीनन्दन खत्री के सृजनात्मक सरोकार अपने समकालीन लेखकों से भिन्न थे। उन्होंने न तो तत्कालीन जीवन के वैविध्य पहलुओं को अपने लेखन में समेटा, न ही साहित्य की उत्कृष्टता के मानदण्डों पर रचना विधान को कसा। उन्होंने तो केवल मनोरंजन धर्मी घटना-प्रधान किस्सों को चित्रात्मक शैली में पिरोया, इसलिए आलोचक उनके साहित्यिक प्रदेय को भले ही अस्वीकार कर दें, लेकिन वे इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि ‘चन्द्रकान्ता’ और ‘चन्द्रकान्ता सन्तति’ का सृजन हिन्दी जगत् की एक आश्चर्यजनक घटना थी मन-मस्तिष्क को सोख लेनेवाले बेहद दिलचस्प घटना-प्रधान कथा-सूत्रों ने हिन्दी संसार को चकित कर दिया। उनके उपन्यासों ने तत्कालीन पाठक समुदाय को अपने चुम्बकीय सम्मोहन में ऐसे जकड़ा कि पाठक लेखक की उर्वर कल्पना से प्रसूत उपन्यास के पात्रों को वास्तविक जीवन के पात्रों में ढूँढ़ने लगे।
खत्री जी के उपन्यासों ने उस समय धूम मचायी जब पाठकों के आत्मीय रिश्ते कविता के साथ थे। उपन्यास लेखन शुरुआती दौर में था। भाषा की दृष्टि से हिन्दी को यथोचित सम्मान नहीं मिल सका था। अंग्रेजी साम्राज्य के कारण अंग्रेजी भी तीव्र गति से प्रसार पा रही थी। कामकाज में उर्दू-फारसी का प्रयोग हो रहा था। ऐसे समय में खत्री के उपन्यासों ने हिन्दी का विशाल पाठक वर्ग तैयार कर महत्त्वपूर्ण कार्य किया भाषा की दृष्टि से उन्होंने राजा शिवप्रसाद ‘सितारे हिन्द’ की अरबी-फारसी हिन्दी तथा भारतेन्दु और राजा लक्ष्मण सिंह की संस्कृतनिष्ठ मिश्र हिन्दी के बीच का मार्ग अपनाकर ‘हिन्दुस्तानी भाषा’ का सच्चा स्वरूप प्रस्तुत किया।
खत्री जी के उपन्यासों के सन्दर्भ में सत्यता और कल्पनात्मकता का, सम्भव असम्भव का सवाल बार-बार उठाया गया है। खत्रीजी ने सच्चाई और झूठ की परख की परवाह न करते हुए कौतूहलवर्धक पाठ पर ही अपना ध्यान केन्द्रित रखा; लेकिन फिर भी उनकी उर्वर कल्पना में विश्वसनीयता का जो पुट नजर आता है उसका सबसे बड़ा कारण है लेखक की वैज्ञानिक समझ। उन्होंने पात्रों की गतिविधियों को ठोस वैज्ञानिक आधार पर संचालित होते हुए दिखाया-और यह एक ऐसा प्रयोग था जो दुनिया के तत्कालीन साहित्य में कहीं भी देखने को नहीं मिलता। कॉनन डायल का प्रमुख पात्र शरलाक होम्स पुलिसिया अन्दाज में कुछ तथ्यों के आधार पर अपराधी को कड़ता है, लेकिन खत्रीजी के पात्र वैज्ञानिक आधार पर गुत्थियों को सुलझाते हैं। उनके उपन्यासों में एक के बाद एक कथा सूत्रों को ऐसे समय ढंग से समेटा गया है, जो आमतौर पर विश्व के साहित्य में गढ़े जा रहे कथ्यों की दुनिया से नितान्त भिन्न था। हिन्दी उपन्यास लेखन में रहस्य और रोमांच की दृष्टि में आज तक कोई रचनाकार खत्रीजी की लोकप्रियता की ऊँचाई तक नहीं पहुँच सका। हिन्दी के अनगिनत पाठक पैदा कर उन्होंने जिस तरह से हिन्दी का प्रचार किया वह अपने आपमें एक महत्त्वपूर्ण कार्य था।