आखिरी रास्ता : डाइवर्सिटि!

वैसे तो मोदी सरकार ने हिंदू राष्ट्र की योजना को अंतिम रूप देने के मकसद से देश में जो हालात पैदा कर दिये हैं, उसमें बहुजनों को आजादी की वैसी लड़ाई लड़ने से भिन्न कोई उपाय नहीं है, जैसी लड़ाई अंग्रेजों के खिलाफ लडी गयी। इससे नीचे की लड़ाई सिर्फ डाइवर्सिटि के लिए ही हो सकती है।


सच्ची बात तो यह है कि शासन- प्रशासन, निजी और सरकारी क्षेत्र की सभी प्रकार की नौकरियों, समस्त व्यवसायिक गतिविधियों में विविधता लागू करवाने की लडाई जीतकर ही भारत के लोकतंत्र और वंचितों के वजूद को बचाया जा सकता है। यह बात डाइवर्सिटिवादी पिछले 18 सालों से कहे जा रहे हैं, किंतु देश के बुद्धिजीवियों और एक्तिविस्टों ने प्रायः संपूर्ण रूप में उसकी अनदेखी ही कर दिया। किंतु अब एक पल की भी अनदेखी जन्मजात वंचितों के लिए भारी पड़ सकती है।


बहरहाल भारी खुशी की बात है कि भूपेश बघेल सरकार ने हर प्रकार की चयन समितियों में एससी, एसटी, ओबीसी और महिलाओं उपस्थिति अनिवार्य कर डाइवर्सिटि की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम उठाया है, जिससे प्रेरणा लेकर हर क्षेत्र में सामाजिक और लैंगिक विविधता लागू करवाने की दिशा अग्रसर हुआ जा सकता है।