*महान समाज सुधारक "नारायणा गुरु"*


स्मृति दिवस विशेष-


आज भारत में सबसे ज्यादा साक्षरता दर वाला राज्य केरल जहाँ सिर्फ महिलाओं की साक्षरता दर राष्ट्रीय महिला साक्षरता दर की तुलना में कहीं अधिक है। जहाँ शिशुओं की मृत्यु दर भारत के और राज्यों की तुलना में सबसे कम है और महिलाओं की संख्या पुरुषों से अधिक है। वहाँ घृणित जाति-व्यवस्था प्रचलित थी और इसी ऊँच-नींच की भावना तथा सामाजिक कुरीतियाँ प्रचलन में होने के कारण शूद्र/अतिशूद्र जाति के लोगों के साथ क्रूर अमानवीय व्यवहार होते थे। ऐसे समय में वहाँ 'नारायण गुरु' जैसे संत और समाज सुधारक का जन्म होता हैं। जिन्होंने केरल को ऐसे घृणित सामाजिक कुरीतियों से निकालने में बहुत बड़ा योगदान दिया। नारायण गुरु ने “मानव की एक जात, एक धर्म और एक ही ईश्वर है अर्थात सभी जन बराबर हैं” सिद्धान्त का प्रसार किया।


    नारायण गुरु भारत के महान संत एवं समाजसुधारक थे। उनका जन्म केरल के तिरुअनंतपुरम के कुछ किलोमीटर की दूरी पर 26 अगस्त, 1854 को एक छोटे से गाँव में हुआ था। नारायण गुरु स्वयं शूद्र (ओबीसी) जाति के होने के कारण वे इस समुदाय के दुःख दर्द को भली भांति समझते थे।


   शिक्षा के प्रति उनका बहुत लगाव था और वो मानते थे कि “मेरा इस देश के शूद्र/अतिशूद्र लोगों से इतना ही कहना है कि वे कष्ट उठा कर भी शिक्षा ग्रहण करें। अन्धविश्वास और अंधश्रधा से लड़ने की ताकत भी हमें शिक्षा और ज्ञान से ही प्राप्त हो सकती है”।


     नारायण गुरु ने मंदिरो के अंदर देवी देवताओ की मूर्तियों के बदले दर्पण लगवाने को कहा। उनका विश्वास था कि मनुष्य स्वंय परमात्मा हैं और मानव मात्र की सेवा करके ही देवत्व को प्राप्त किया जा सकता हैं।  नारायण गुरु ने ‘श्री नारायण धर्म परिपालन योगम’ का गठन किया जिसने मंदिरो में अतिशूद्रों के प्रवेश अधिकार को लेकर आंदोलन शुरु किया।


   एक बार महात्मा गाँधी वैकुम सत्याग्रह सम्बन्ध में  नारायण गुरु से मिलने शिवगिरि आये। दोनों के बीच बहुत लम्बी बातचीत हुई। उन्होंने पूछा कि ‘क्या हिन्दू धर्म में बिभिन्न जातियों का होना प्रकृति के नियमानुसार नहीं हैं’. महात्मा गाँधी ने इसकी पुष्टी के लिए एक पेड़ के छोटे और बड़े पत्ते का उदाहरण दिया। नारायण गुरु ने वर्णाश्रम व्यवस्था के तहत विभिन्न जातियों को अस्वीकार किया और उन्होंने कहा कि ‘पेड़ के छोटे या बड़े पत्तो में एक ही रस होता हैं, अर्थात व्रहम एक हैं, एक ही जाति है। नारायण गुरु से मिलने के बाद महात्मा गांधी ने लिखा “अति सुन्दर ट्रावनकोर रियासत का भ्रमण और आदरणीय श्री नारायण गुरु से मुलाकात मेरे जीवन की अति सौभाग्यशाली घटनाओं में से एक है।” 


    विश्वविख्यात कवि, साहित्यकार, दार्शनिक और भारतीय साहित्य के नोबल पुरस्कार विजेता रवीन्द्रनाथ टैगोर ने नारायण गुरु के बारे में कहा था कि “मैंने विश्व के विभिन्न स्थानों की यात्रा की है। इन यात्रा के दौरान मुझे अनेक संतों और विद्वानों के दर्शन करने का अवसर मिला है। लेकिन मैं यह स्पष्ट रूप से स्वीकार करता हूँ कि मुझे अभी तक कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जो केरल के स्वामी श्री नारायण गुरु से आध्यात्मिक रूप से अधिक महान हो अथवा आध्यात्मिक उपलब्धियों में उन के समकक्ष भी हो।” 


    नारायण गुरु ने अपने कार्यकर्मों और उपदेशों से केरल की शूद्र/अतिशूद्र वर्ग के लोगों में आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता पैदा की। इन्ही के प्रयत्नों से केरल में अतिशूद्र जातियों के लिए मंदिरों के द्वार खोल दिये गए और कुछ समय बाद कानून भी पारित कर दिया गया।


     श्री नारायण गुरु फरवरी 1928 में अचानक अस्वस्थ हो गए। इनको अपने अंतिम समय का आभास हो गया था और 20 सितंबर 1928 को 72 वर्ष कि आयु में वे महासमाधि में लीन हो गए।
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